ये किसकी हया को .... (एक रचना)
ये किसकी हया को छूकर आज बादे सबा आयी है
दिल की हसीन वादियों में ये किसकी सदा आयी है
होने लगी है सिहरन क्यूँ अचानक से इस जिस्म में
किसकी पलक ने अल-सुबह ही आज ली अंगड़ाई है
छोड़ा था इक ख़तूत जो कभी हमने उस दहलीज़ पे
छू के उसकी आग़ोश को ये सुर्ख़ हवा आज आयी है
बिन पिये ही मयख़ानों से क्यूँ रिन्द सब जाने लगे
किसने अपने रुख़्सार से चिलमन आज हटायी है
हमारी तरह बेताबियाँ उस तरफ भी होंगी हिज़्र में
हाले-मुहब्बत देखकर चांदनी भी आज शरमायी है
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय harivallabh sharma जी रचना पर आपकी आत्मीय ऊर्जावान प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीय Sushil Sarna जी सुन्दर रचना ,अच्छे भावों का रेखांकन हुआ, बधाई सादर
आदरणीय Hari Prakash Dubey जी रचना पर आपकी आत्मीय ऊर्जावान प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी रचना पर आपकी आत्मीय ऊर्जावान प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीय Dr. Vijai Shanker जी रचना पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी रचना पर आपकी ऊर्जावान आत्मीय प्रशंसा का हार्दिक आभार।
बिन पिये ही मयख़ानों से क्यूँ रिन्द सब जाने लगे
किसने अपने रुख़्सार से चिलमन आज हटायी है......बहुत ही सुन्दर ,आनंद आ गया ,हार्दिक बधाई आदरणीय सुशील सरना सर !
सरना जी
छा गए भाया i बहुत लुभाया i सादर i
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