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बस गया है लाल बाहर क्या करे
हो गया है खेत बंजर क्या करे
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एक बूढ़ी माँ अकेली रह गई
काटने को दौड़ता घर क्या करे
***
चाँद लौटेगा नहीं अब, है पता
रात भर रोकर भी अम्बर क्या करे
***
ठोकरें खाना खिलाना भाग्य में
राह का टूटा वो पत्थर क्या करे
***
रीत तो थी, जिंदगी भर साथ की
दे गया धोखा जो सहचर क्या करे
***
हाथ आयी करवटों की बेबसी
मखमली है पास बिस्तर क्या करे
***
है ‘मुसाफिर’ भाग्य में केवल सफर
सिर्फ यादों में बसा घर क्या करे
रचना - 5 जनवरी 15
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
ग़ज़ल पर अपनी उपस्थिति से ग़ज़ल का मान बढ़ने और उत्साहवर्धन के लिए सभी आ० प्रबुद्ध जानो का हार्दिक धन्यवाद . समयाभाव के कारन व्यक्तिगत तौर पर धन्यवाद ज्ञापित न कर पाने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ .
हाथ आयी करवटों की बेबसी
मखमली है पास बिस्तर क्या करे---जबरदस्त
सभी शेर एक से बढ़कर एक हैं
बहुत बहुत बधाई इस शानदार ग़ज़ल के लिए
एक बूढ़ी माँ अकेली रह गई
काटने को दौड़ता घर क्या करे,
अगर घर पर है तो भी गनीमत ही है ,आजकल तो आश्रम में ....
दिल तक गयी है रचना ...
हाथ आयी करवटों की बेबसी
मखमली है पास बिस्तर क्या करे -.... बहुत खूब आदरणीय लक्ष्मण भाई , गज़्ल के लिये और इस शेअर के लिये बधाइयाँ ।
ठोकरें खाना खिलाना भाग्य में
राह का टूटा वो पत्थर क्या करे बिलकुल सही
रीत तो थी, जिंदगी भर साथ की
दे गया धोखा जो सहचर क्या करे...सच है ...हर शेर उम्दा ..इस ग़ज़ल को गुनगुनाने में आनदं आया ..आपको बहुत सारी बधाई सादर
चाँद लौटेगा नहीं अब, है पता
रात भर रोकर भी अम्बर क्या करे
***
ठोकरें खाना खिलाना भाग्य में
राह का टूटा वो पत्थर क्या करे
आदरणीय लक्ष्मण धामी सर , उम्दा ग़ज़ल हुई है |ढेरों दाद कबूल फरमावें |सादर अभिनन्दन |
बस गया है लाल बाहर क्या करे
हो गया है खेत बंजर क्या करे
***
एक बूढ़ी माँ अकेली रह गई
काटने को दौड़ता घर क्या करे
वाह सभी शेर अच्छे लगे बधाई
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी बहुत बढ़िया ग़ज़ल
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