माँझी मंजिल से पृथक डालो नहीं पड़ाव
भँवर भरे मझधार में क्यों उलझाते नाव?
क्यों उलझाते नाव, लहर पथ कहाँ उकेरे
उथल-पुथल संघर्ष, लाख चौरासी फेरे ,
एकल करो विमर्श! बात करनी क्या साँझी?
क्या होगा परिणाम, राह भटके जो माँझी?
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया प्राचीजी इस शानदार रचना पर आपको हार्दिक बधाई सादर
आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी , सोच रहां हूँ इतने कम शब्दों में इतनी सुन्दर प्रस्तुति कैसे लिखी जा सकती है ? बहुत ही सुन्दर रचना , हार्दिक बधाई ! सादर
बहुत सुंदर और भावपूर्ण कुण्डलिया छंद | जीवन रूपी नैयाँ न भटके, सार रूप में बहुत कुछ समाता छंद रचा है | हार्दिक बधाई आपको
आ० प्राची जी
चौरासी लाख फेरे से आध्यात्मिक संकेत देकर आपने न मांझी मे ईश्वर के दर्शन कराये i उसके विचलन को हम अध्यात्म में ही जीवन की परीक्षा कहते हैं i वह अधिक परीक्षा न ले यानि अधिक न भटके यह जीव की सहज प्रार्थना है i बहुत अच्छे शब्दों से आपने छंद सिद्ध किया है i आपको बधाई i सादर i
आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी इस रचना को पढ़ते हुए कामायनी याद आ गई ..यथा
शक्ति के विद्युत् कण जो व्यस्त,विकल बिखरे है हो निरुपाय
समन्वय उनका करे समस्त, विजयनी मानवता हो जाय.
आ० मिथिलेश जी
छंद का कथ्य आप सम पाठक की स्वीकार्यता पा सका और अभिव्यक्ति को आपकी आत्मीय सराहना मिली.. इससे मुझे भी संतोष हुआ है कि रचना सार्थक हो सकी है
आपका हार्दिक आभार
आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी बहुत सुन्दर कुण्डलिया छंद हुआ है. एक एक शब्द जड़ा हुआ. कथ्य इतनी सहजता से उभर आया कि बस हृदय से वाह वाह स्वमेव ही निकलने लगे. हार्दिक बधाई स्वीकार करें
माँझी मंजिल से पृथक, डालो नहीं पड़ाव
भँवर भरे मझधार में, क्यों उलझाते नाव?
क्यों उलझाते नाव, लहर पथ कहाँ उकेरे
उथल-पुथल संघर्ष, लाख चौरासी फेरे ,
एकल करो विमर्श! बात करनी क्या साँझी?
क्या होगा परिणाम, राह भटके जो माँझी?
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