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डरी आँखों ने देखा वो नज़ारा कैसे---(ग़ज़ल 'राज')

१२२२  १२२२  १२२२ २ 

कभी फुर्सत मिले तो सोच हारा कैसे

बिना तैरे मिले किसको किनारा कैसे

 

जहाँ लगती दिलों की भी बराबर कीमत

वहाँ पैसों बिना भी हो गुज़ारा  कैसे

 

जिसे भाने लगे  कबसे रकीबों के घर

भला दिल से कहें उसको हमारा कैसे

 

मुहब्बत की जहाँ रिमझिम फुहारें गिरती  

सुलग उट्ठा वहाँ अदना शरारा कैसे

 

जहाँ मासूम लाशें हर तरफ फैली थी

डरी आँखों ने देखा वो नज़ारा  कैसे

 

 

नहीं मिलती सदाक़त की जहाँ पर लाठी

कोई फिर दे वहाँ किसको सहारा कैसे

 

लुटेरों का फ़लक के हश्र भी देखा क्या?

हवाओं  ने उन्हें नीचे उतारा कैसे

 

खुदा का दर कभी जिसके लिए बेजां था   

उसी काफिर ने अब उसको पुकारा कैसे

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 22, 2015 at 9:25pm

खुदा का दर कभी जिसके लिए बेजां था   

उसी काफिर ने अब उसको पुकारा कैसे - ---बहुत खूब आदरणीया राजेश जी , गज़ल के लिये और इस शे र के लिये आपको दिली बधाइयाँ ।

Comment by Hari Prakash Dubey on January 22, 2015 at 8:00pm

बहुत सुन्दर आदरणीया  राजेश कुमारी जी  ....

नहीं मिलती सदाक़त की जहाँ पर लाठी

कोई फिर दे वहाँ किसको सहारा कैसे.........हार्दिक बधाई ! सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 22, 2015 at 7:16pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी शेर दर शेर दाद कुबूल कीजिये बेहद उम्दा ग़ज़ल हुई है .. नमन 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 22, 2015 at 5:03pm

आ० श्याम नारायण वर्मा जी,ग़ज़ल आपको पसंद आई आपका दिली शुक्रिया.  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 22, 2015 at 5:01pm

आ० डॉ.गोपाल नारायण जी आपकी प्रतिक्रिया से अभिभूत हूँ ग़ज़ल आपको पसंद आई मेरी ग़ज़ल धन्य हुई तहे दिल से आभार आपका.  

Comment by Shyam Narain Verma on January 22, 2015 at 3:55pm
बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल ....हार्दिक बधाई ! 
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 22, 2015 at 12:50pm

महनीया

बेहतरीन, बेहतरीन , बेहतरीन i सभी अशआर  अच्छे है  i आपको बधाई i

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