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कभी फुर्सत मिले तो सोच हारा कैसे
बिना तैरे मिले किसको किनारा कैसे
जहाँ लगती दिलों की भी बराबर कीमत
वहाँ पैसों बिना भी हो गुज़ारा कैसे
जिसे भाने लगे कबसे रकीबों के घर
भला दिल से कहें उसको हमारा कैसे
मुहब्बत की जहाँ रिमझिम फुहारें गिरती
सुलग उट्ठा वहाँ अदना शरारा कैसे
जहाँ मासूम लाशें हर तरफ फैली थी
डरी आँखों ने देखा वो नज़ारा कैसे
नहीं मिलती सदाक़त की जहाँ पर लाठी
कोई फिर दे वहाँ किसको सहारा कैसे
लुटेरों का फ़लक के हश्र भी देखा क्या?
हवाओं ने उन्हें नीचे उतारा कैसे
खुदा का दर कभी जिसके लिए बेजां था
उसी काफिर ने अब उसको पुकारा कैसे
मौलिक एवं अप्रकाशित
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Comment
खुदा का दर कभी जिसके लिए बेजां था
उसी काफिर ने अब उसको पुकारा कैसे - ---बहुत खूब आदरणीया राजेश जी , गज़ल के लिये और इस शे र के लिये आपको दिली बधाइयाँ ।
बहुत सुन्दर आदरणीया राजेश कुमारी जी ....
नहीं मिलती सदाक़त की जहाँ पर लाठी
कोई फिर दे वहाँ किसको सहारा कैसे.........हार्दिक बधाई ! सादर
आदरणीया राजेश कुमारी जी शेर दर शेर दाद कुबूल कीजिये बेहद उम्दा ग़ज़ल हुई है .. नमन
आ० श्याम नारायण वर्मा जी,ग़ज़ल आपको पसंद आई आपका दिली शुक्रिया.
आ० डॉ.गोपाल नारायण जी आपकी प्रतिक्रिया से अभिभूत हूँ ग़ज़ल आपको पसंद आई मेरी ग़ज़ल धन्य हुई तहे दिल से आभार आपका.
बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल ....हार्दिक बधाई ! |
महनीया
बेहतरीन, बेहतरीन , बेहतरीन i सभी अशआर अच्छे है i आपको बधाई i
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