सांस है मुसाफिर.......(एक रचना )
सांस है मुसाफिर इसको राह में ठहर जाना है
जिस्म के पैराहन को जल के बिखर जाना है
दुनिया को मयखाना समझ नशे में ज़िंदा रहे
होश आया तो समझे कि ख़ुदा के घर जाना है
याद किसकी सो गयी बन के अश्क आँख में
धड़कनें समझी न ये जिस्म को मर जाना है
ज़िंदगी समझे जिसे दरहक़ीक़त वो ख़्वाब थी
सहर होते ही जिसे बस रेत सा बिखर जाना है
कतरा-कतरा प्यार में जिस के हम मरते रहे
वो राह को रोके खड़े हैं हमको जिधर जाना है
दर्द ख्वाबों के हमारे कोई भला क्या जानेगा
साथ हस्ती के इन्हें भी ख़ाक में मर जाना है
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय somesh kumar जी रचना पर आपकी मधुर प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीय Hari Prakash Dubey जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार।
सांस है मुसाफिर इसको राह में ठहर जाना है
जिस्म के पैराहन को जल के बिखर जाना है
दुनिया को मयखाना समझ नशे में ज़िंदा रहे
होश आया तो समझे कि ख़ुदा के घर जाना है -----सरना जी i बहुत उम्दा i बधाई हो i
आदरणीय सुशील सरना जी, आपकी रचना पसंद आयी, बहुत बहुत बधाई.
आदरणीय सुशील सरना जी इस सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई ...
दुनिया को मयखाना समझ नशे में ज़िंदा रहे
होश आया तो समझे कि ख़ुदा के घर जाना है|
बहुत गहरा जीवन -दर्शन है इन पंक्तियों में |
गज़ल भी बहुत कुछ कह रही है |सुंदर !अभिवादन इस रचना पर आ.|
आदरणीय सुशील सरना जी इस सुन्दर रचना पर हार्दिक बधाई आपको ....
दुनिया को मयखाना समझ नशे में ज़िंदा रहे
होश आया तो समझे कि ख़ुदा के घर जाना है..........ये पंक्तियाँ तो गज़ब ढा रही हैं ..सादर !
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