रात में फुटपाथ पर इक बेबसी रोती रही,
लोग तो जागे मगर संवेदना सोती रही,
शाम होते ही जमीं पर तीरगी छाने लगी,
आसमानों में सुबह तक रोशनी होती रही,
याद की चादर वो अपने आंसुओं की धार से,
दर्द की कालिख मिटाने के लिए धोती रही,
किसलिए इतनी मशक्कत, जब उसे पीना नहीं
शहद मधुमक्खी न जाने किसलिए ढोती रही
ऐ खुदा तेरी खुदाई का सबब ये भी मिला,
मौत ने काटी फसल और जिंदगी बोती रही।।
.
(अतुल)
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय शिज्जू शकूर भाई साहब, आभार आपका, कृपया स्नेह बनाए रखिए। सादर
आदरणीया महिमा जी..बहुत आभारी हूं आपका। सादर—अतुल
याद की चादर वो अपने आंसुओं की धार से,
दर्द की कालिख मिटाने के लिए धोती रही,
किसलिए इतनी मशक्कत, जब उसे पीना नहीं
शहद मधुमक्खी न जाने किसलिए ढोती रही
आदरणीय अतुल जी उम्दा ग़ज़ल हुई है |सभी अशहार लाज़वाब है |सादर अभिनन्दन
आदरणीय अतुल भाई ,बढिया ग़ज़ल कही l हार्दिक बधाइ l
शाम होते ही जमीं पर तीरगी छाने लगी,
आसमानों में सुबह तक रोशनी होती रही,
याद की चादर वो अपने आंसुओं की धार से,
दर्द की कालिख मिटाने के लिए धोती रही,
किसलिए इतनी मशक्कत, जब उसे पीना नहीं
शहद मधुमक्खी न जाने किसलिए ढोती रही ------------- बढिया ग़ज़ल कही आदरणीय अतुल भाई , हार्दिक बधाइयाँ ।
किसलिए इतनी मशक्कत, जब उसे पीना नहीं
शहद मधुमक्खी न जाने किसलिए ढोती रही.....बहुत खूब लिखा आपने .....हार्दिक बधाई आपको !
आदरणीय मिथिलेश जी ने मन की बात कह दी , पर कोई बात नहीं , वैसे आप इस मंच से भी अपनी रचनायें शेयर कर सकतें हैं ! सादर
किसलिए इतनी मशक्कत, जब उसे पीना नहीं
शहद मधुमक्खी न जाने किसलिए ढोती रही
ये शेर अब तक अप्रकाशित है इसके लिए हार्दिक बधाई. साथ ही मिसरा-ए-सानी बेबह्र हुआ है देख लीजियेगा.
आदरणीय अतुल कुमार कुशवाहा 'मौसम' जी इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई. एक निवेदन है कृपया पूर्व प्रकाशित रचनाएँ पुनः पोस्ट न करे. ये ग़ज़ल कई वेबसाइट/ब्लॉग/ सोशल साईट पर आप प्रकाशित कर चुके है. सुलभ सन्दर्भ हेतु एक दो लिंक
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