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फ़िक्र उक़्बा की न दुनिया का ख़याल
सो गए ग़फ़लत की चादर तान के
आदरणीय कबीर साहब ,उम्दा ग़ज़ल हुई है |मतले में शायद आप कबीर की उलटबांसियों सी कोई व्यंजना रखना चाह रहें हैं ,मगर ग़ज़ल आम समझ की होने पर ही दिल के करीब लगती है |आदरणीय गिरिराज सर और शिज्जु सर की तरह मैं भी मतले के साथ थोड़ा असहज हूं ,बाकि अशहार लासानी है |सादर अभिनन्दन
बरकतें होने लगीं नाज़िल "समर"
पाँव घर में क्या पड़े महमान के----------------वाह----वाह------ कबीर साहेब i
आदरणीय समर कबीर जी,
आप क्यूं ज़हमत उठाते हैं जनाब
ख़ुद ही दुश्मन हैं हम अपनी जान के.....बहुत खूब , हार्दिक बधाई !
आदरणीय समर कबीर जी ग़ज़ल पर दिली दाद कुबूल फरमाएं। ग़ज़ल का मतला बार बार पढ़ा, मिसरों में रब्त करने की दिलो-जां से कोशिश की और अजीब निष्कर्ष पर पहुँचा कि यह एक नाकारे आदमी पर व्यंग्य है जिसका हौसला बिना शैतान के चुंगल में गए बढ़ता ही नहीं. यानी हौसला बढ़ाना है तो शैतान के चुंगल में जाना अनिवार्य शर्त है. सादर
आदरणीय समर कबीर भाई , मैने समझ के लिये आम शब्द उपयोग किया था , आपने आम को आदमी के साथ जोड़ कर जवाब दे दिया , जिसमे मेरे लिये एक प्रश्न भी शामिल है । जवाब का केंन्द्रीय भाव जो मै समझ सका हूँ , उसके बाद और कुछ मेरे कहने के लिये जगह नहीं खोज पा रहा हूँ । अतः बाक़ी सब शुभ शुभ और आपको हार्दिक शुभ कामनायें ।
आदरणीय समर साहब लाजवाब ग़ज़ल है दिली दाद हाज़िर है। लेकिन मतले में थोड़ा उलझ गया हूँ दोनों मिसरों में रब्त तो मेरे समझ में भी नहीं आया।
आदरणीय समर कबीर भाई , मतला छोड़ बाक़ी गज़ल पहुर खूब सूरत कही है , दिली मुबारकबाद कुबूल करें ।
मतले में सोचने वाली बात ये है ( मेरी समझ में ) कि , शैतान के चुंगल में आने के बाद इंसान का हौसला बढ़ेगा या घटेगा । आम समझ ये कहती है कि , शैतानी चुंगल में इंसान का हौसला घटेगा , आपने मिसरा ए सानी मे हौसला बढ़्ने की बात की है , मेरे ख्याल से इसी लिये मतला कमज़ोर लग रहा है । एक बार सोच के अवश्य देखियेगा ।
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