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फंस गया चुंगल में जब शैतान के
हौसले बढने लगे इंसान के

तुमसे ये लग़ज़िश न हो जाए कहीं
हम बहुत पछताए दिल की मान के

उन से कह दो छोड़ दें भारत मिरा
लोग जो हामी हैं पाकिस्तान के

आप क्यूं ज़हमत उठाते हैं जनाब
ख़ुद ही दुश्मन हैं हम अपनी जान के

फ़िक्र उक़्बा की न दुनिया का ख़याल
सो गए ग़फ़लत की चादर तान के

बरकतें होने लगीं नाज़िल "समर"
पाँव घर में क्या पड़े महमान के

समर कबीर /मौलिक रचना अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on January 26, 2015 at 2:38pm
जनाब ख़ुरशीद भाई,जनाब गोपाल नारायन जी, जनाब हरी प्रकाश दुबे जी,आदाब, ग़ज़ल पसंद करने के लिये बहुत बहुत शुक्रिया!
Comment by khursheed khairadi on January 26, 2015 at 1:18pm

फ़िक्र उक़्बा की न दुनिया का ख़याल
सो गए ग़फ़लत की चादर तान के

आदरणीय कबीर साहब ,उम्दा ग़ज़ल हुई है |मतले में शायद आप कबीर की उलटबांसियों सी कोई व्यंजना रखना चाह रहें हैं ,मगर ग़ज़ल आम समझ की होने पर ही दिल के करीब लगती है |आदरणीय गिरिराज सर और शिज्जु सर की तरह मैं भी मतले के साथ थोड़ा असहज हूं ,बाकि अशहार लासानी है |सादर अभिनन्दन 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 26, 2015 at 12:58pm

बरकतें होने लगीं नाज़िल "समर"
पाँव घर में क्या पड़े महमान के----------------वाह----वाह------ कबीर साहेब i

Comment by Hari Prakash Dubey on January 26, 2015 at 11:18am

आदरणीय समर कबीर जी,

आप क्यूं ज़हमत उठाते हैं जनाब

ख़ुद ही दुश्मन हैं हम अपनी जान के.....बहुत खूब , हार्दिक बधाई !


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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 26, 2015 at 11:15am

आदरणीय समर कबीर जी ग़ज़ल पर  दिली दाद कुबूल फरमाएं। ग़ज़ल का मतला बार बार पढ़ा, मिसरों में रब्त करने की दिलो-जां से कोशिश की और अजीब निष्कर्ष पर पहुँचा कि यह एक नाकारे आदमी पर व्यंग्य है जिसका हौसला बिना शैतान के चुंगल में गए बढ़ता ही नहीं. यानी हौसला बढ़ाना है तो शैतान के चुंगल में जाना अनिवार्य शर्त है. सादर 


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Comment by गिरिराज भंडारी on January 26, 2015 at 10:30am

आदरणीय समर कबीर भाई , मैने समझ के लिये आम शब्द उपयोग किया था , आपने आम को आदमी के साथ जोड़ कर जवाब दे दिया , जिसमे मेरे लिये एक प्रश्न भी शामिल है । जवाब का केंन्द्रीय भाव जो मै समझ सका हूँ , उसके बाद और कुछ मेरे कहने के लिये जगह नहीं  खोज पा रहा हूँ । अतः बाक़ी सब शुभ शुभ और आपको हार्दिक शुभ कामनायें ।


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Comment by शिज्जु "शकूर" on January 26, 2015 at 7:38am

आदरणीय समर साहब लाजवाब ग़ज़ल है दिली दाद हाज़िर है। लेकिन मतले में थोड़ा उलझ गया हूँ दोनों मिसरों में रब्त तो मेरे समझ में भी नहीं आया।

Comment by Samar kabeer on January 25, 2015 at 10:36pm
श्रीमान गिरिराज भंडारी जी ,आदाब आप आम आदमी की तरह सोच रहे हैं जैसा कि आपने ख़ुद फरमाया है,
अब एक बार इस मतले को एक शाईर की नज़र से देखिये और थोड़ा सा ग़ौर कीजिये और फिर मुझे बताईये कि क्या अब भी मतला कमज़ोर लग रहा है ?

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Comment by गिरिराज भंडारी on January 25, 2015 at 9:37pm

आदरणीय समर कबीर भाई , मतला छोड़ बाक़ी गज़ल पहुर खूब सूरत कही है , दिली मुबारकबाद कुबूल करें ।  

मतले में सोचने वाली बात ये है ( मेरी समझ में ) कि , शैतान के चुंगल में आने के बाद इंसान का हौसला बढ़ेगा या घटेगा । आम समझ ये कहती है कि , शैतानी चुंगल में इंसान का हौसला घटेगा , आपने मिसरा ए सानी मे हौसला बढ़्ने की बात की है , मेरे ख्याल से इसी लिये मतला कमज़ोर लग रहा है । एक बार सोच के अवश्य देखियेगा ।

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