तुझे पाना ही बस मेरी चाह नहीं,
बदन मिल जाना ही इश्क़ की राह नहीं।
जिस्म का क्या है, मिट्टी में मिल जाएगा,
हाँ, मगर रूह को कोई परवाह नहीं।
लबों ने लबों को तो बाद में छुआ,
पहले तू रूह से हमारा हुआ।…
ContinueAdded by AMAN SINHA on November 10, 2024 at 7:59am — No Comments
दोहा पंचक. . . विविध
देख उजाला भोर का, डर कर भागी रात ।
कहीं उजागर रात की, हो ना जाए बात ।।
गुलदानों में आजकल, सजते नकली फूल ।
सच्चाई के तोड़ते, नकली फूल उसूल ।।
धर्म - कर्म ईमान सब, बेमतलब की बात ।
क्षुधित उदर को चाहिए, रोटी चावल भात ।।
आँधी आई अर्थ की, दरकी हर दीवार ।
अपनी ही दहलीज पर, रिश्ते सब लाचार ।
नवयुग के परिवेश में, प्यार बना व्यापार ।
प्यार नहीं है जिस्म को, जिस्मानी दरकार ।।
सुशील सरना /…
ContinueAdded by Sushil Sarna on November 9, 2024 at 3:30pm — No Comments
सामाजिक संदर्भ हों, कुछ हों लोकाचार।
लेखन को इनके बिना, मिले नहीं आधार।।
मिले नहीं आधार, सत्य के बिन उद्घाटन।
शिक्षा, संस्कृति, अर्थ, मूल्य पर भी हो चिंतन।।
बिना ज्ञान-विज्ञान, न वर्णन है प्रासंगिक।
विषय सृजन की रहें, विषमताएँ सामाजिक।।1।।
सुनिए सबकी बात पर, रहे सहज अभिव्यक्ति।
तथ्यपरक हो दृष्टि भी, करें न अंधी भक्ति।।
करें न अंधी भक्ति, इसी में है अपना हित।
निर्णय का अधिकार, स्वयं सँग रखें सुरक्षित।।
कुछ करने के पूर्व, उचित को हिय…
Added by रामबली गुप्ता on November 4, 2024 at 8:00pm — 4 Comments
एक ही सत्य है, "मैं"
एक ही सत्य है, "मैं"
श्वेत हूँ मैं ,
और श्याम भी मैंं ।
मैं ही क्रोध हूँ,
और काम भी मैं।
उस ईश्वर का
मैं रूप नहीं,
स्वयं ईश्वर हूँ,
मैं दूत नहीं।
एक ही सत्य है, "मैं"
कर्म भी मैं हूँ,
और फल भी मैं,
धर्म भी मैं,
और अधर्म भी मैं।
कर्ता भी मैं,
और कांड भी मैं,
विपत्ति भी मैं,
और समाधान भी मैं।
तुम जितना
मुझमें समाओगे,
उतना ही
मुझको…
Added by AMAN SINHA on November 2, 2024 at 5:56am — No Comments
२१२२-१२१२-२२/११२
और कितना बता दे टालूँ मैं
क्यों न तुमको गले लगा लूँ मैं (१)
छोड़ते ही नहीं ये ग़म मुझ्को
ख़ुद को कितना बता सभालूँ मैं (२)
तू मुझे क़ैद करके मानेगा
क्यों न पिंजरे में ख़ुद को डालूँ मैं (३)
ज़िंदगी दूर है बहुत मुझसे
ज़ह्र है पास क्यों न खा लूँ मैं (४)
ज़िन्दगी लिफ्ट माँगती ही नहीं
मौत माँगे तो क्या बिठा लूँ मैं (५)
पाँव में एक दिन जगह देगा
क्यों न सर पे उसे…
Added by सालिक गणवीर on October 31, 2024 at 4:35pm — 2 Comments
212 212 212 212
इस तमस में सँभलना है हर हाल में
दीप के भाव जलना है हर हाल में
हर अँधेरा निपट कालिमा ही नहीं
एक विश्वास पलना है हर हाल में
एकपक्षीय प्रेमिल विचारों भरे
इन चरागों को जलना है हर हाल में
निर्निमेषी नयन का निवेदन लिये
मन से मन तक टहलना है हर हाल में
देह को देह की भी न अनुभूति हो
मोम जैसे पिघलना है हर हाल में
अल्पनाओं सजी गोद में बैठ कर
दीप को मौन बलना है…
Added by Saurabh Pandey on October 29, 2024 at 9:30pm — 6 Comments
बह्र: 1212 1122 1212 22
किसी के दिल में रहा पर किसी के घर में रहा
तमाम उम्र मैं तन्हा इसी सफ़र में रहा
छुपा सके न कभी बेवकूफ़ थे इतने
हमारा इश्क़ मुहब्बत की हर ख़बर में रहा
बड़ी अजीब मुहब्बत की है उलटबाँसी
बहादुरी में कहाँ था मज़ा जो डर में रहा
नदी वो हुस्न की मुझको डुबो गई लेकिन
बहुत है ये भी की मैं देर तक भँवर में रहा
मिली न प्यार की मंजिल तो क्या…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 27, 2024 at 9:37pm — No Comments
दोहा पंचक. . . . करवाचौथ
चली सुहागन चाँद का, करने को दीदार ।
खैर सजन की चाँद से, माँगे बारम्बार ।।
सधवा ढूँढे चाँद को, विभावरी में आज ।
नहीं प्रतीक्षा का उसे, भाता यह अंदाज ।।
पावन करवा चौथ का, आया है त्योहार ।
सधवा देखे चाँद को, कर सोलह शृंगार ।।
अद्भुत करवा चौथ का, होता है त्योहार ।
निर्जल रह कर माँगती, अपने पति का प्यार ।।
भरा माँग में उम्र भर , रहे सदा सिन्दूर ।
हरदम दमके आँख में , सदा सजन का नूर ।।
सुशील सरना /…
Added by Sushil Sarna on October 20, 2024 at 3:13pm — 3 Comments
मुझ को मेरी मंज़िल से मिला क्यूँ नहीं देते
आख़िर मुझे तुम अपना पता क्यूँ नहीं देते
जज़्बात के शोलों को हवा क्यूँ नहीं देते
तुम आग मुहब्बत की लगा क्यूँ नहीं देते
जब आप को बे इंतिहा मुझ से है मुहब्बत
फिर हाथ मेरी सम्त बढ़ा क्यूँ नहीं देते
जो बन के सितारे हैं रवां आँख से आँसू
ये ज़ीस्त की ज़ुल्मत को मिटा क्यूँ नहीं देते
जो…
ContinueAdded by Mamta gupta on October 12, 2024 at 11:30pm — 2 Comments
Added by Amod Kumar Srivastava on October 10, 2024 at 2:37pm — No Comments
२२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
पतझड़ के जैसा आलम है विरह की सी पुरवाई है
ये कैसा मौसम आया है जिसका रंग ज़ुदाई है
घूमते रहते हैं कई साये दिल के अँधेरे कमरे में
काट रही है पल पल मन को ग़म की रात कसाई है
जंगल जंगल घूम रहा हूँ लेकर अपनी बेचैनी
ख़ामोशी में शोर बपा है ये कैसी तन्हाई है
ना जाने क्या सोच रही है मन ही मन बैठी दुल्हन
आँखों में इक हैरानी है चेहरे पे रानाई है
शादी का अवसर लाया है ग़म के साथ…
ContinueAdded by Aazi Tamaam on October 5, 2024 at 10:40am — No Comments
दोहा सप्तक. . . . संबंध
पति-पत्नी के मध्य क्यों ,बढ़ने लगे तलाक ।
थोड़े से टकराव में, रिश्ते होते खाक ।।
अहम तोड़ता आजकल , आपस का माधुर्य ।
तार - तार सिन्दूर का, हो जाता सौन्दर्य ।।
खूब तमाशा हो रहा, अदालतों के द्वार ।
आपस के संबंध अब, खूब करें तकरार ।।
अपने-अपने दम्भ की, तोड़े जो प्राचीर ।
उस जोड़े की फिर सदा, सुखमय हो तकदीर ।।
पति-पत्नी के बीच में, बड़ी अहम की होड़ ।
जनम - जनम के साथ को, दिया बीच में छोड़। ।
जरा- जरा सी बात पर,…
ContinueAdded by Sushil Sarna on September 23, 2024 at 3:41pm — 1 Comment
दोहा पंचक. . . . . दरिंदगी
चाहे जिसको नोचते, वहशी कामुक लोग ।
फैल वासना का रहा , अजब घृणित यह रोग ।।
बेबस अबला क्या करे, जब कामुक लूटें लाज ।
रोज -रोज इस कृत्य से, घायल हुआ समाज ।।
अबला सबला हो गई, कहने की है बात ।
जाने कितने सह रही, घुट-घुट वो आघात ।।
नजरें नीची लाज की, वहशी करता मौज ।
खुलेआम ही हो रहा, घृणित तमाशा रोज ।।
छलनी सब सपने हुए, छलनी हुआ शरीर ।
कौन सुने संसार में, अबला अंतस पीर ।।
सुशील सरना /…
ContinueAdded by Sushil Sarna on September 20, 2024 at 3:58pm — No Comments
.
तो फिर जन्नतों की कहाँ जुस्तजू हो
जो मुझ में नुमायाँ फ़क़त तू ही तू हो.
.
ये रौशन ज़मीरी अमल एक माँगे
नदामत के अश्कों से दिल का वुज़ू हो.
.
जो तख़लीक़ सब की सभी से जुदा है
भला राह मुक्ति की क्यूँ हू-ब-हू हो.
.
कभी हो ख़यालात से ज़ह’न ख़ाली
ख़लाओं से भी तो कभी गुफ़्तगू हो.
.
वो मुल्हिद नहीं हो मगर ये है मुमकिन
उसे बस सवालात करने की ख़ू हो.
(मुल्हिद--नास्तिक) (ख़ू -आदत)
.
निलेश "नूर"
मौलिक/…
Added by Nilesh Shevgaonkar on September 18, 2024 at 4:51pm — 4 Comments
नभ पर लकदक चाँद दे, रोटी का आभास
बिन रोटी कब प्रीत भी, करती कहो उजास।१।
*
सभ्य जगत में है भले, हर वैज्ञानिक योग
रोटी खातिर आज भी, भटक रहे पर लोग।२।
*
भूखे प्यासे प्राण को, बासी रोटी खीर
लगता बस धनहीन को, मँहगाई का तीर।३।
*
रोटी ने जिसको किया, विवश और कमजोर।
उसकी सबने खींच दी, हर इज्जत की डोर।४।
*
पहली रोटी गाय को, अन्तिम देना स्वान।
पुरखों की इस सीख को, कौन रहा अब…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 17, 2024 at 10:31pm — No Comments
दोहा पंचक. . . . . . विविध
चढ़ते सूरज को सदा, करते सभी सलाम।
साँझ ढले तो भानु की, बीते तनहा शाम।।
भोर यहाँ बेनाम है, साँझ यहाँ गुमनाम ।
जिस्मों के बाजार में, हमदर्दी नाकाम ।।
छीना झपटी हो रही, किस पर हो विश्वास ।
रहबर ही देने लगे, अपनों को संत्रास ।।
तनहाई के दौर में, यादों का है शोर ।
जुड़ी हुई है ख्वाब से, उसी ख्वाब की डोर ।।
मुझसे ऊँचा क्यों भला, उसका हो प्रासाद ।
यही सोचकर रात -दिन, सदा बढ़े अवसाद ।।
सुशील…
ContinueAdded by Sushil Sarna on September 17, 2024 at 2:46pm — No Comments
सौदेबाजी रह गई, अब रिश्तों के बीच ।
सम्बन्धों को खा गई, स्वार्थ भाव की कीच ।।
रिश्तों के माधुर्य में, आने लगी खटास ।
धीरे-धीरे हो रही, क्षीण मिलन की प्यास ।।
मन में गाँठें बैर की, आभासी मुस्कान ।
नाम मात्र की रह गई, रिश्तों में पहचान ।।
आँगन छोटे कर गई, नफरत की दीवार ।
रिश्तों की गरिमा गई, अर्थ रार से हार ।।
रिश्ते रेशम डोर से, रखना जरा सँभाल ।
स्वार्थ बोझ से टूटती, अक्सर इनकी डाल…
Added by Sushil Sarna on September 11, 2024 at 1:00pm — 1 Comment
गर्दभ का हर युग रहे, गर्दभ सा ही हाल
बनता नहीं तुरंग वह, भले लगा ले नाल।१।
*
भूला पुरखे थे कभी, चेतक से बेजोड़
करते तभी तुरंग से, आज गधे भी होड़।२।
*
कहते लोग तुरंग को, कब होता घर दूर
चाहे हो वो काठ का, जय लाता भरपूर।३।
*
क्या पौरुष के रंग वो, दिखलाता संसार।
मोड़ न पाया रास जो, बनकर अश्व सवार।४।
*
रथ में जोते चल रहा, सूरज सात तुरंग
इसीलिए लड़ पा रहा, तम से लम्बी जंग।५।
*
घोड़े पर जो वायु के, होता बहुत सवार
छिन…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 10, 2024 at 6:09am — 4 Comments
आँखों तक ही रूप का, होता है संसार
किंतु गुणों से आत्मा, पाती है झंकार।१।
*
रखने तन को छरहरा, देते भोजन त्याग।
कोई कहता हैं नहीं, लेकिन गुण से जाग।२।
*
गुण की चिंता है किसे, दिखता रहे गँवार
अब तो केवल रूप को, सब ही रहे सँवार।३।
*
जाना जिसने रूप से, गुण का गुण है खास
उस के जीवन से कभी, जाती नहीं उजास।४।
*
गुण है गुण गुणवान को, अवगुण गुण है दुष्ट
जिस को भाता जो रहा, करता उसको पुष्ट।५।
*
गुण से बढ़कर रूप का, जो करता गुणगान
करता गुण…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 9, 2024 at 4:15am — 4 Comments
1222 - 1222 - 1222 - 1222
ग़ज़ल में ऐब रखता हूँ कि वो इस्लाह कर जाते
वगर्ना आजकल रुकते नहीं हैं बस गुज़र जाते
न हो उनकी नज़र तो बाँध भी पाता नहीं मिसरा
ग़ज़ल हो नज़्म हो अशआर मेरे सब बिखर जाते
बड़ी मुद्दत से मैं भी कब 'मुरस्सा' नज़्म कह पाया
ग़ज़ल पर सरसरी नज़रों ही से वो भी गुज़र जाते
अरूज़ी हैं अदब-दाँ वो अगर बारीक-बीनी से
न देते इल्म की दौलत तो कैसे हम निखर जाते
मिले हैं ओ. बी. ओ.…
ContinueAdded by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 8, 2024 at 5:15pm — 21 Comments
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