२१२ २१२ २१२
वो वफ़ा जानता ही नहीं
इस खता की सजा ही नहीं
फिर वही रोज जीने की जिद
जीस्त का पर पता ही नहीं
शहर है पागलों से भरा
इक दिवाना दिखा ही नहीं
पूजता हूँ तुझे इस तरह
गो जहां में खुदा ही नहीं
खा गए थे सड़क हादसे
सारे घर को पता ही नहीं
मौलिक व अप्रकाशित
गुमनाम पिथौरागढ़ी
Comment
धन्यवाद गोपाल जी नादिर जी कोशिश रहेगी कि कुछ अच्छा कह सकूं .................
फिर वही रोज जीने की जिद
जीस्त का पर पता ही नहीं
शहर है पागलों से भरा
इक दिवाना दिखा ही नहीं
आदरणीय बहुत उम्दा कहा ढेरों मुबारकबाद ....
गुमनाम जी
मुझे आपकी गजल अच्छी लगी i सादर i
धन्यवाद विजय जी आशुतोष जी ............ बस कोशिशे हैं जिन्हें आप गुणी जन सराहते है तो उत्साह बढ़ता है ,,
aadarneey gumnaam jee .behtareen shero se susajjit is shandaar ghazal ke liye dher saaree badhaaayee sweekar karein saadar
मिथिलेश जी क्यों शर्मिंदा कर रहे हैं आप लोगो को कैसे भूल सकता हूँ सिर्फ नाम नहीं लिखा पर हर बार आप ही तो मुझे महत्वपूर्ण बनाते फिर भला आप को कैसे भूला जा सकता है...........धन्यवाद मिथिलेश जी सोमेश जी गिरिराज जी राहुल जी हरी प्रकाश जी श्याम जी आप सभी का धन्यवाद
धन्यवाद हमे भी चाहिए आदरणीय गुमनाम सर जी, प्रतिक्रिया देने वाले और भी है आ. कांता जी, आ. डॉ शंकर सर, आ. श्याम नरैन वर्मा जी, आ. श्याम मठपाल जी, आ. हरिप्रकाश दुबे जी और मैं....... मैंने तो एक निवेदन भी किया है, जी निरुत्तर है. पुनः उम्दा ग़ज़ल के लिए बधाई.
पूरी गज़ल दिलकश और ये शे'र कुछ ज़्यादा खास लगा -
शहर है पागलों से भरा
इक दिवाना दिखा ही नहीं
आदरणीय गुमनाम भाई , बहुत अच्छी गज़ल हुई है , दिल से बधाइयाँ ।
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