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मन किसी अंधे कुए में नित वफ़ा को ढूँढता है
जबकि तन लेकर हवस को रात दिन बस भागता है
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तार कर इज्जत सितारे घूमते बेखौफ होकर
कह रहे सब खुल के वचलना चाँद की भोली खता है
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जिंदगी भर यूँ अदावत खूब की तूने सभी से
मौत के पल मिन्नतें कर राह में क्यों रोकता है
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जाँच को फिर से बिठाओ आँसुओं कोई कमीशन
घाव की मौजूदगी में दर्द कैसे लापता है
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आप ने पूछा कि पलकें किस लिए गीली हमेंशा
गम रहे हरदम सलामत अश्क इसको जागता है
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मिल ही जाते हैं अजाने लोग अक्सर दोस्तों से
कब मिला पर वो ‘मुसाफिर’ स्वप्न जिसको खोजता है
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आ0 भाई विनोद जी और भाई श्याम मठपाल जी उत्साहवर्धन के लिए आभार स्नेह बनाए रखें ।
आ0 भाई सोमेश जी और भाई विजय जी , उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार ।
आ0 भाई मिथिलेश जी गजल को अत्यधिक मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय लक्ष्मण भाई , ग़ज़ल बहुत सुन्दर कही है , दिली बधाइयाँ । मतले मे इता दोष की संभावना से आ. बागी जी से मै भी सहमत हूँ ।
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी रचना पर मेहनत दिखाई दे रही है लेकिन लगता है कहीं कुछ कमी है। मैं आदरणीय गणेशजी की बात से सहमत हूँ।
मन किसी अंधे कुए में नित वफ़ा को ढूँढता है
जबकि तन लेकर हवस को रात दिन बस भागता है
आज के प्रेम में क्न्फुजियाई पीढ़ी का सपाट सत्य
सारी गज; की कमी-खूबियों पर गुणीजन पहले ही बहुत कुछ कह चुके हैं |हमारी तरफ से बधाई |
जाँच को फिर से बिठाओ आँसुओं कोई कमीशन
घाव की मौजूदगी में दर्द कैसे लापता है
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी कालजयी शेर निकाल ले गए.... बरबस ही याद आ जाने वाला शेर या कहे भूला न सकने वाला शेर
इस शेर पे दिल से दाद कुबूल करे. बाकि आदरणीय बागी सर कह चुके है. ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई
//मन किसी अंधे कुए में नित वफ़ा को ढूँढता है
जबकि तन लेकर हवस को रात दिन बस भागता है//
वाह वाह आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, मतला का कहन बरबस ध्यान खींचता है, किन्तु प्रथम दृष्टया ईता दोष भी लग रहा है.
//कह रहे सब खुल के वचलना चाँद की भोली खता है//
तनिक इस मिसरा को देख लीजियेगा यह 'वचलना' क्या है ?
//जाँच को फिर से बिठाओ आँसुओं कोई कमीशन
घाव की मौजूदगी में दर्द कैसे लापता है//
इस शे'र के लिए विशेष दाद देता हूँ भाई जी.
//गम रहे हरदम सलामत अश्क इसको जागता है//
इस मिसरा में रेखांकित भाग का कहन समझ नहीं सका.
मकता भी काफ़ी जँचा, बहुत बहुत बधाई.
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