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मेरे हँसने हँसाने पे शक़ है उसे
बेव़जह मुस्कुराने पे शक़ है उसे
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अलव़िदा कह गया जाता-जाता मग़र
आज़तक भूलपाने पे शक़ है उसे
....................
हर किसी से करूँ ज़िक्र मैं यार का
पर व़फायें निभाने पे शक़ है उसे
...................
कब से तनहाई दुल्हन बनी है मेरी
पर तुझे भूल जाने पे शक़ है उसे
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आँसुओं से समन्दर भी मैंने भरा
मेरे आँसू बहाने पे शक़ है उसे
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
अच्छी ग़ज़ल कही है भाई जी बधाई
आदरणीय उमेश कटारा जी, बहुत बढ़िया हार्दिक बधाई , सादर !
कटारा जी
बेहतरीन गजल i अति सुन्दर i
बेव़जह मुस्कुराने पे शक़ है उसे
बहुत खूब कहा आ० उमेश भाई , इस सुंदर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई l
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