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बाजरे की बालियाँ...... ग़ज़ल (मिथिलेश वामनकर)

2122—2122—2122—212

 

खेत की, खलिहान की औ गाँव की ये मस्तियाँ

कितनी  दिलकश हो गई है  बाजरे की बालियाँ

 

वो कहन क्यूं खो गई जो महफिलों को लूट लें

हर बड़ी बकवास  पर  अब बज रही है तालियाँ

 

आप  इतना तो  बताएं  क्या सियासतदार  है?

आपकी  मुस्कान  पे भी आ रही है  मितलियाँ

 

खींच  तानी  से भला  किसको  हुआ  है फायदा

किस तरह बरसे बता गर लड़ पड़ी जब बदलियाँ

 

मंजिले   उसने   बताई  परबतों    के  पार   है

बीच  में  अक्सर लुभाती है   महकती  वादियाँ

 

ख्वाहिशे उनकी भला  क्योंकर  समंदर  हो गई

ताज उनकों चाहिए  औ  ताज पे भी  कलगियाँ

 

ये मशालें बुझ रही  'मिथिलेश' अबके खुद जलो

और अंगारों से फिर उठने दो कातिल बिजलियाँ

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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Comment by Hari Prakash Dubey on February 5, 2015 at 2:37pm

आदरणीय मिथिलेश जी, हार्दिक बधाई आपको इस संपूर्ण सुन्दर रचना पर

मंजिले   उसने   बताई  परबतों    के  पार   है

सिम्त  मेरे  दिख  रही  है  वादियाँ ही वादियाँ.....शानदार

ये मशालें बुझ रही  'मिथिलेश' अबके खुद जलो

और अंगारों से फिर उठने दो कातिल बिजलियाँ.......अतुलनीय....आनंद आ गया !

 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 5, 2015 at 12:42pm

ये मशालें बुझ रही  'मिथिलेश' अबके खुद जलो

और अंगारों से फिर उठने दो कातिल बिजलियाँ

आ० भाई  मिथिलेश जी.यूं तो सम्पूर्ण ग़ज़ल प्रभावशाली हुई है फिर भी इस शेर पर विशेष डैड कबूलें . शेष शुभ शुभ ....

Comment by khursheed khairadi on February 5, 2015 at 11:31am

ये मशालें बुझ रही  'मिथिलेश' अबके खुद जलो

और अंगारों से फिर उठने दो कातिल बिजलियाँ

आदरणीय मिथिलेश जी सुन्दर भावपूर्ण ग़ज़ल हुई है |मक्ते ने दिल को छू लिया है |सादर अभिनन्दन |

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 5, 2015 at 11:23am

वाह!  फिर से एक और सुंदर सादगीपूर्ण गजल पढने को मिली. बहुत-बहुत बधाई आपको, आदरणीय मिथिलेश जी.

Comment by savitamishra on February 5, 2015 at 10:44am

बस पढ़ते ही रहे ऐसा लगा हमें ....खुबसुरत

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 5, 2015 at 10:12am
वो कहन क्यूं खो गई जो महफिलों को लूट लें
हर बड़ी बकवास पर अब बज रही है तालियाँ
यथार्थ चित्रण , बधाई , प्रिय मिथिलेश जी, सादर।
वैसे यह भी है कि ,
साहित्य में भी अब होती है बस मेरी, तेरी , उनकी बात
जब से होने लगी प्रायोजित कार्यक्रमों की बरसात।
Comment by Shyam Narain Verma on February 5, 2015 at 10:03am
इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई

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