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कुलषित संस्कृति हावी तुम पर, बांह पकड़ नाच नचाये ।
लोक-लाज शरम-हया तुमसे, अब बरबस नयन चुराये ।।
किये पराये अपनो को तुम, गैरों से आंख मिलाये ।
भौतिकता के फेर फसे तुम, घर अपने आग लगाये ।।

पैर धरा पर धरे नही तुम, उड़े गगन पंख पसारे ।
कभी नही सींचे जड़ पर जल, नीर साख पर तुम डारे ।
नीड़ नोच कर तुम तो अपने, दूजे का नीड़ सवारे ।
करो प्रीत अपनो से बंदे, कह ज्ञानी पंडित हारे ।।

...............................
मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Hari Prakash Dubey on February 7, 2015 at 10:22pm

आदरणीय रमेश कुमार चौहान जी .....सुन्दर 

नीड़ नोच कर तुम तो अपने, दूजे का नीड़ सवारे ।
करो प्रीत अपनो से बंदे, कह ज्ञानी पंडित हारे ।।.....बहुत बधाई आपको !

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 6, 2015 at 10:20pm
सुन्दर, दोनों ही छंद बहुत सुन्दर , बधाई आदरणीय रमेश चौहान जी, सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 6, 2015 at 9:57pm
आदरणीय रमेश कुमार चौहान जी बेहतरीन प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई।
Comment by Shyam Narain Verma on February 6, 2015 at 9:48am

सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति ..बधाई आपको .

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