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आचरण से ध्यान जादा डील में - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

2122   2122      212
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दोष  ऐसा  आ  गया  अब  शील में
फासले  कदमों  के  बदले  मील में
***
भर लिया तम से मनों को इस कदर
रोशनी   भी   कम   लगे  कंदील  में
****
देह  होकर   देह   सा   रहते  नहीं
टाँगते  खुद  को वसन से कील में
****
युग  नया  है  रीत भी  इसकी नई
आचरण  से  ध्यान  जादा डील में  /       डील-दैहिक विस्तार
****
अब  बचे  पावन  न  रिश्ते दोस्तो
तत तक बदले है खुद को चील में
***
भय सताता क्या  तुम्हें भी दाग का
श्वेत  चादर  जो   डुबोते   नील  में
***
देखता  हूँ  दुर्जनों   को  भय नहीं
राज  गहरा  शासकों  की ढील में
***
चह तो थी वो  सिखाए  शील कुछ
संत  ही पर  रम गए अश्लील में
***
छटपटाता  जब  वनों  पर  चोट हो
हमसे  जादा  सभ्यता  है  भील में
***


मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by Dr. Vijai Shanker on February 19, 2015 at 11:14am
दोष ऐसा आ गया अब शील में
फासले कदमों के बदले मील में ॥
सुन्दर, सभी शेर सुन्दर हैं, आदरणीय लक्षमण धामी जी, बधाई, सादर।
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 19, 2015 at 10:55am

आ0 भाई हरिप्रकाश जी गजल का अनुमोदन करने हेतु हार्दिक धन्यवाद ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 19, 2015 at 10:54am

आ0 भाई खुर्शीद जी , गजल पर उपस्थिति देकर मान बढ़ाने के लिए हार्दिक आभार ।

Comment by khursheed khairadi on February 19, 2015 at 10:08am

छटपटाता  जब  वनों  पर  चोट हो
हमसे  जादा  सभ्यता  है  भील में

आदरणीय लक्ष्मण साहब ,बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई है |ढेरों दाद कबूल फरमावें |सादर |

Comment by Hari Prakash Dubey on February 19, 2015 at 8:24am

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, सुन्दर प्रस्तुति ,इन पंक्तियों पर विशेष ध्यान अटकता है .....//भय सताता क्या  तुम्हें भी दाग का
श्वेत  चादर  जो   डुबोते   नील  में//.....वाह

//छटपटाता  जब  वनों  पर  चोट हो
हमसे  जादा  सभ्यता  है  भील में//....सुन्दर 

 हार्दिक बधाई ! सादर !

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