2122 2122 212
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दोष ऐसा आ गया अब शील में
फासले कदमों के बदले मील में
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भर लिया तम से मनों को इस कदर
रोशनी भी कम लगे कंदील में
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देह होकर देह सा रहते नहीं
टाँगते खुद को वसन से कील में
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युग नया है रीत भी इसकी नई
आचरण से ध्यान जादा डील में / डील-दैहिक विस्तार
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अब बचे पावन न रिश्ते दोस्तो
तत तक बदले है खुद को चील में
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भय सताता क्या तुम्हें भी दाग का
श्वेत चादर जो डुबोते नील में
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देखता हूँ दुर्जनों को भय नहीं
राज गहरा शासकों की ढील में
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चह तो थी वो सिखाए शील कुछ
संत ही पर रम गए अश्लील में
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छटपटाता जब वनों पर चोट हो
हमसे जादा सभ्यता है भील में
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मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आ0 भाई हरिप्रकाश जी गजल का अनुमोदन करने हेतु हार्दिक धन्यवाद ।
आ0 भाई खुर्शीद जी , गजल पर उपस्थिति देकर मान बढ़ाने के लिए हार्दिक आभार ।
छटपटाता जब वनों पर चोट हो
हमसे जादा सभ्यता है भील में
आदरणीय लक्ष्मण साहब ,बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई है |ढेरों दाद कबूल फरमावें |सादर |
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, सुन्दर प्रस्तुति ,इन पंक्तियों पर विशेष ध्यान अटकता है .....//भय सताता क्या तुम्हें भी दाग का
श्वेत चादर जो डुबोते नील में//.....वाह
//छटपटाता जब वनों पर चोट हो
हमसे जादा सभ्यता है भील में//....सुन्दर
हार्दिक बधाई ! सादर !
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