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ग़ज़ल-झील सा शीतल चाँद से सुन्दर लिख्खा है |

झील सा शीतल चाँद से सुन्दर लिख्खा है
हमने जो देखा है मंज़र लिख्खा है

अबजद हव्वज़ का भी जिन को इल्म नहीं
दुनिया ने उन को भी सुख़नवर लिख्खा है

आज उसी पर फूल वफ़ा के खिलते हैं
तुमने जिस धरती को बंजर लिख्खा है

पढ़कर देखो मेरी इन तहरीरों को
तुमको ही उन्वान बनाकर लिख्खा है

कुछ लोगों ने दौर-ए-ख़िज़ाँ के बारे में
कमरे में फूलों को सजाकर लिख्खा है

हमने बग़ावत करके सारी दुनिया से
महरूमी का नाम सिकन्दर लिख्खा है

"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 24, 2015 at 1:05am

आदरणीय समर कबीर जी, आपकी ग़ज़ल तो उम्दा और बेहतरीन होती ही है, आज आपके साहित्य के प्रति समर्पण से भाव विभोर हूँ , नमन करता हूँ आपको .. और भाई जी को बहुत बहुत आभार,धन्यवाद जिन्होंने आपकी रचनाओं से हमे परिचित कराया. 

Comment by Hari Prakash Dubey on February 24, 2015 at 12:02am

आदरणीय समर कबीर जी,अभी खुरशीद साहब का पोस्ट पढ़ा तो जानकारी मिली ,नमन है आपको और आपके सुपुत्र को !सादर 

Comment by Samar kabeer on February 23, 2015 at 11:45pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी, आदाब अर्ज़ करता हूँ,बहुत बहुत शुक्रिया आपकी इनायतों का,मेरा बेटा भी आपसे कुछ कहना चाहता है
अंकल आपकी ख़िदमत में आदाब पेश करता हूँ,आपने ठीक फ़रमाया पिता की सेवा भी इबादत का दर्जा रखती है और मैं यह इबादत करता रहूँ इसके लिये मुझे आशिर्वाद दीजिये|

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Comment by गिरिराज भंडारी on February 23, 2015 at 11:11pm

आदरणीय समर भाई , गज़ल तो आप बेमिसाल कहते  ही हैं , ये गज़ल भी बहुत खूब कही है , हर शे र लाजवाब हैं । दिली मुबारकबाद कुबूल करें ॥

आदरणीय समर भाई , आदरणीय खुर्शीद भाई  से आपकी आँखों के विषय में जानकारी मिली । आपके प्रति और आपके साहबजादे के प्रति दिल मे इज़्ज़त बढ गई , ग़ज़ल गोई के लिये ऐसा समर्पण बिरला ही देखने को मिलता है , और ऐसे साहबज़ादे भी नसीबवालों को मिलते हैं । ख़ुदा आपकी लेखनी को खूब बरकत दे । और हाँ , साहबजादे , ख़ुदा आपको हर खुशी अता करे , आप जो सेवा कर रहे हैं वो ख़ुदा की इबादत से किसी दर्ज़ा कम नहीं है ॥

Comment by दिनेश कुमार on February 23, 2015 at 10:30pm
Oh...abhi paDa hai sir ji....bahut jhatka laga mujhe.. AFsos hua
Comment by Samar kabeer on February 23, 2015 at 10:26pm
जनाब ख़ुर्शीद जी ,आदाब,आपका बहुत बहुत शुक्रिया कि आपने मंच को मेरी मजबूरी से आगाह किया मैं नहीं जानता कि कितने भाईयों और बहनों ने इसे पढ़ा होगा ?
अपना एक शैर आपके माध्यम से पेश करना चाहूँगा :-
"कौन देगा अब सहारा सूझता कुछ भी नहीं
बुझ गई आँखों की बीनाई किसे आवाज़ दूँ" |
Comment by Samar kabeer on February 23, 2015 at 10:13pm
जनाब दिनेश कुमार जी,उमेश कटारा जी,गुमनाम जी,हरी प्रकाश दुबे जी,आदाब,हौसला अफ़ज़ाई के लिये आप सभी हज़रात का तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ |
Comment by khursheed khairadi on February 23, 2015 at 9:27am

आज उसी पर फूल वफ़ा के खिलते हैं
तुमने जिस धरती को बंजर लिख्खा है

पढ़कर देखो मेरी इन तहरीरों को
तुमको ही उन्वान बनाकर लिख्खा है

आदरणीय समर कबीर सर , क्या ख़ूब ग़ज़ल हुई है ,बधाई आपको |मतला कमाल का हुआ है और मक्ते ने तो जान लेली वा...ह 

हमने बग़ावत करके सारी दुनिया से
महरूमी का नाम सिकन्दर लिख्खा है

मंच से सादर निवेदन है कि कबीर साहब आँखों से मा'ज़ूर (विवश) है ,आपके साहबजादे ही आपकी रचनाओं को पोस्ट करते हैं और सभी पोस्ट रचनाएं और टिप्पणियाँ पढ़कर सुनाते हैं |इसी विवशता के चलते कबीर साहब कई रचनाओं पर पोस्ट नहीं कर पाते ,इसे अन्यथा न लें |मैं अपने दफ़्तर और घर के सामान्य कामकाज़ के चलते हुये भी मंच को पूरा समय नहीं दे पाता हूं ,ऐसे में कबीर साहब की सक्रियता और समर्पण को देखकर दंग रह जाता हूं |इनके साहबजादे साहब का भी शुक्रगुजार हूं कि वे पूरी तन्मयता से हमे कबीर साहब की उम्दा रचनाओं से रूबरू करवा रहें हैं |सर नमन आपको |

सादर अभिनन्दन | 

Comment by Hari Prakash Dubey on February 23, 2015 at 2:29am

आदरणीय समर कबीर जी शानदार रचना है // हमने बग़ावत करके सारी दुनिया से

महरूमी का नाम सिकन्दर लिख्खा है// वाह ...बधाई प्रेषित !

Comment by gumnaam pithoragarhi on February 22, 2015 at 5:17pm

पढ़कर देखो मेरी इन तहरीरों को तुमको ही उन्वान बनाकर लिख्खा है वाह सर खूब ग़ज़ल कही है बधाई स्वीकारें

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