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सुना सहसा उसने

और दिल बैठ गया

तड़प रहे अंतस में  

नया डर पैठ गया

 

तकिये पर सिर छिपा

विवश वह लेट गया

आंसुओं की परतें अनगिन

दर्द में समेट गया

 

अगले रविवार फिर  

वही मंजर आयेगा

मौन-प्रेम सिसकेगा

तडपकर मर जाएगा

 

एक कन्या बेमन से अनचाहा वर वरेगी

प्यार के शव पर ही मांग वह भरेगी

अभी उसके व्याह का  आमंत्रण आया है

चंद्रमा विलुप्त हुआ, ग्रहण गहराया है

 

सुना सहसा उसने

और दिल बैठ गया

तड़प रहे अंतस में 

नया डर पैठ गया

 

कितने ग्रहण ऐसे भग्न-हृदय में विलसते

राहु कितने चन्द्र और सूर्य नित्य डसते ?

(मौलिक व् अप्रकाशित )

 

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Comment by गिरिराज भंडारी on February 24, 2015 at 10:26am

बहुत खूब आदरणीय बड़े भाई , बहुत मार्मिक कविता की रचना की है , हर युग में कोई न कोई राहू रहा है ,जो किसी न किसी चंद्र को ग्रसता रहा है । हार्दिक बधाइयाँ रचना के लिये ॥

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 24, 2015 at 1:19am
बहुत ही मार्मिक प्रस्तुति, बहुत बहुत बधाई आदरणीय डॉ O गोपाल नारायण जी, सादर।
Comment by Hari Prakash Dubey on February 24, 2015 at 12:51am

अगले रविवार फिर  

वही मंजर आयेगा

मौन-प्रेम सिसकेगा

तडपकर मर जाएगा.....आदरणीय डॉ.गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर ,सुन्दर मार्मिक रचना ,हार्दिक बधाई आपको ! सादर 

Comment by Samar kabeer on February 23, 2015 at 10:34pm
आली जनाब डॉ.गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी, आदाब,बहुत ही सुन्दर रचना के लिये बधाई स्वीकार करें |

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