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ग़ज़ल - तितलियाँ परीशाँ हैं ( गिरिराज भंडारी )

212    1222         212      1222

क्या हुआ यहाँ पर कल , क्यूँ उदास मौसम है

तितलियाँ परीशाँ हैं , क्यूँ गुलों में भी ग़म है

 

कितनी प्यारी लगतीं हैं , ये गुलाब की कलियाँ

और बर्गे गुल में वो , सो रहा जो शबनम है 

 

अपनी क़िस्मतों मे तो , सिर्फ ये सराब आये 

क़िस्मतों में कुछ के ही, सिर्फ़ आबे जम जम है

 

जगमगाती खुशियों की , नीव कह रही है ये  

कुछ घरों में तारीक़ी , कुछ घरों में मातम है

 

आइने के गावों में ,पत्थरों का मजमा क्यूँ

बेसदा सवाल ऐसा , फिर से दिल में कायम है

 

कोई रो गया है क्या , आज शब-ए- सह्रा में

बेकली है क्यूँ तारी  , क्यूँ ज़मीन नम नम है 

 

यादों के सहारे यूँ , ज़िन्दगी नहीं कटती

फिर भी याद आई तो , दर्दे दिल ज़रा कम है

****************************************** 

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

 

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 18, 2015 at 4:50pm

आदरणीय मोहन सेठी भाई जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका बहुत बहुत आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 18, 2015 at 4:49pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 18, 2015 at 4:48pm

आदरणीय नवीन भाई , सलाह के लिये आपका शुक्रिया , मै ज़रूर कोई शब्द सोचूंगा !!

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 18, 2015 at 2:34pm
बड़े ख़ूबसूरत अश’आर हुए हैं गिरिराज जी। विशेषकर ये चारों बहुत अच्छे हुए हैं।

अपनी क़िस्मतों मे तो , सिर्फ ये सराब आये
क़िस्मतों में कुछ के ही, सिर्फ़ आबे जम जम है

जगमगाती खुशियों की , नीव कह रही है ये
कुछ घरों में तारीक़ी , कुछ घरों में मातम है

आइने के गावों में ,पत्थरों का मजमा क्यूँ
बेसदा सवाल ऐसा , फिर से दिल में कायम है

कोई रो गया है क्या , आज शब-ए- सह्रा में
बेकली है क्यूँ तारी , क्यूँ ज़मीन नम नम है
Comment by somesh kumar on March 18, 2015 at 11:13am

जगमगाती खुशियों की , नीव कह रही है ये  

कुछ घरों में तारीक़ी , कुछ घरों में मातम है

एक से एक भावपूर्ण एवं दमदार शे रों से परिपूर्ण गज़ल |

बधाई आदरणीय 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on March 18, 2015 at 9:36am

वाह क्या खूब मतले से शुरुआत हुई है और दीगर अशआर भी प्रभावी हैं सादर बधाई आपको

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on March 18, 2015 at 4:38am

वाह खूब कहा है ...

यादों के सहारे यूँ , ज़िन्दगी नहीं कटती

फिर भी याद आई तो , दर्दे दिल ज़रा कम है

बधाई स्वीकार करें ...सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 18, 2015 at 1:54am
आदरणीय गिरिराज सर उम्दा बेहतरीन और आहंगखेज ग़ज़ल हुई है। आखिरी दो शेर लाजवाब है। दिल से दाद हाज़िर है।
Comment by Naveen Mani Tripathi on March 17, 2015 at 11:57pm
आदरणीय भंडारी जी
अच्छी गजल के लिए शुक्रिया

मतला का शेर पर गौर कीजिये । मोसम से मिलता जुलता शब्द ढूँढिये । जो शब्द है वो मजा नहीं दे रहा है ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 17, 2015 at 9:54pm

आदरणीय बागी भाई जी , गज़ल पर आपकी उपस्थित ही आनन्द दायक है मेरे लिये ! आपकी सरहना से मन आनन्दित है ! आपका हार्दिक आभार ।

कृपया ध्यान दे...

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