चंचल नदी
बाँध के आगे
फिर से हार गई
बोला बाँध
यहाँ चलना है
मन को मार, गई
टेढ़े चाल चलन के
उस पर थे
इल्ज़ाम लगे
उसकी गति में
थी जो बिजली
उसके दाम लगे
पत्थर के आगे
मिन्नत सब
हो बेकार गई
टूटी लहरें
छूटी कल कल
झील हरी निकली
शांत सतह पर
लेकिन भीतर
पर्तों में बदली
सदा स्वस्थ
रहने वाली
होकर बीमार गई
अपनी राहें
ख़ुद चुनती थी
बँधने से पहले
अब तो सबकुछ
पूछ रही वो
रुक जाए, बह ले
आजीवन वो
उसी राह से
हो लाचार, गई
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बहुत सुन्दर रचना हुई .. इन पंक्तियों ने बहुत प्रभावित किया
अपनी राहें
ख़ुद चुनती थी
बँधने से पहले
अब तो सबकुछ
पूछ रही वो
रुक जाए, बह ले
आदरणीय धर्मेंद्र जी ग़जल के साथ आपकी अन्य विधाओं में कही गई रचनायें भी प्रभावित करती हैं इस नवगीत के लिये दाद हाज़़िर है
बहुत दिनों बाद आपकी ओर से नवगीत सुन रहा हूँ, आदरणीय धर्मेन्द्रजी. नवगीत की विशिष्टताओं के साथ साझा हुई यह प्रस्तुति अपने इंगितों से संतुष्ट करती है. प्रगति की समस्त घोषणाओं के बावज़ूद सामान्य नारी की दशा, उसकी विवशता तथा व्यथा को नदी के बिम्ब से सार्थक शब्द मिले हैं. कथ्य और शिल्प दोनों में रचनात्मकता उभर कर बाहर आयी है.
इस सुगढ़ नवगीत के लिए हार्दिक धन्यवाद और अतिशय बधाइयाँ.
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