जवानी की दहलीज़ पार कर चुकी विनीता ने फिर से लड़के वालों के आने की खबर सुनते ही अपने घर जाने के अरमानों को संजों लिया. अपनी माँ के खटिया पकड़ने के बाद, उसे अपने पिता समान बड़े भाई और माँ के दर्जे वाली भाभी से ही आशायें बंधी हुई है. आज फिर एक कुलीन परिवार का लड़का, अपनी सहमती जताकर लौट गया. मेहमानों के लौटते ही भाभी ने विनीता से कहा..
“बिन्नो!! मैं ऑफिस के लिए बहुत लेट हो गई हूँ. तुम बच्चों को तैयार कर स्कूल भिजवा देना, माँ जी का कमरा और कपडे देख लेना और सुनो.. मैं तुम्हारे लिए आज वाले लड़के से भी सुंदर राजकुमार ढूंढ कर लाउंगी...”
विनीता अपने काम में जुट गई और अपने अरमानो को फिर से दबाकर, एक नए जीवनसाथी की कल्पना उसके मन में सजने लगी...
जितेन्द्र पस्टारिया
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय जितेन्द्र भाई साहब ,सुन्दर प्रस्तुति,हार्दिक बधाई प्रेषित ! सादर
आप ने लघुकथा में मास्टरी की है आदरणीय जितेन्द्र जी
बहुत बढ़िया ....मर्म छूती रचना आदरणीय
बहुत सुन्दर लघुकथा , दूसरों के द्वारा किया गया शोषण काम तकलीफदेह होता है बनिस्पत अपनों के | बहुत बहुत बधाई..
रचना के मर्म ने आपके ह्रदय को छुआ, रचनाकर्म सार्थक हुआ आदरणीय डा.गोपाल जी. आपका ह्रदय से आभार.
सादर!
आपकी उपस्थिति हेतु आपका आत्मीय आभार, आदरणीय अमन जी
सादर!
लघुकथा पर आपके आशीर्वाद हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ, आदरणीय डा.विजय जी
सादर!
जीतू भाई
दिल जीत लिया भाई. बहुत सुन्दर .
समाज का नगा सत्य !
बधाई हो बंधु !
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