"कुछ सिखाओं अपनी माँ को | शहर में रहते पच्चीसों साल हो गये पर रही गंवार की गंवार |"
" बड़े साहब कितनी बार कहें बैठ जाओ पर ये बैठी नहीं |"
"कइसे बैठती जी, वो 'पैताने' बैठने को कहत रहा | "...सविता मिश्रा
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय गोपाल चाचाजी आप का कहना बिल्कुल वाजिब हैं | और हम बखूबी समझ रहें हैं चाचाजी | पर बुजुर्ग का मान रखने के चक्कर में युवा साहब ने बैठने को कहा , पर गाँव के परिवेश से आई बुजुर्ग महिला को गंवारा न हुआ बैठना |.....सादर नमस्ते |
अब यदि इस कथा को बदलना भी किसी तरह चाहे तो बदलने से फिर ख़त्म हो जायेगी | कुछ नई गढ़नी पड़ेगी फिर तो | ..यदि सुझाव आप दें सकें तो हमें ख़ुशी होंगी |...हम बदलने में अक्षम हैं इसे |
जहाँ तक हमारा विचार है यदि चारपाई या तख़्त पर कोई अधलेटा सा भी है तो चाहे कुर्सी भी आफर की जाए पैर की तरफ लोग बैठना गंवारा नहीं करते |
कई जनों से सुनें हैं जिसके द्वारा बोला जाय वैसे ही भाषा लिखने की कोशिश होनी चाहिए ..वैसे ना जाने क्यों हम इत्तेफ़ाक नहीं रखते ...पर हो सकता है सब अपनी ही भाषा में कहने पर वह और भी नियमों से हट जाये ..वैसे भी हमारी कथा नियमों के विरुद्ध हो जाती हैं
आदरणीय डाक्टर विजय भैया सादर नमस्ते ...
पैताने बैठने को कहा जिससे गाँव की परिवेश में रहने वाली बुजुर्ग महिला को जचा नहीं | अतः नहीं बैठीं..सादर
आ० सविता जी
आ० राजेश कुमारी जी का कथन अपने स्थान पढ़ाई और मेरा सन्दर्भ दूसरा है . माँ जी किसी घरवाले के साथ बैठने नहीं जा रही हैं . वह साहब के पास बैठने हेतु प्रस्तावित है . साहब एक महिला को कुर्सी आफर करे यह तो ठीक है पर वह र्पैताने या सिरहाने बैठने को कहे यह बात गले से नहीं उतरती i साहेब के बिस्तर पर माँ के बैठने का क्या औचित्य है . सम्भवतः मेरा मंतव्य आप समझ गयी होंगी . सादर .
इस अच्छी लघु कथा के लिए बधाई
संस्कार नही वर्तमान मे लाभ और लोभ प्रमुख हो गए है ......संस्कार असमंजस की मनोदशा का अच्छा प्रस्तुतीकरण !
आदरणीया सविता जी , 'पैताने' आंचलिक शब्द है , या तो आप ( कोष्ठक) में इसका अर्थ लिख देतीं तो बात अधिक स्पष्ट हो जाती , जैसे कई जगह इसे गोडवारी भी कहा जाता है , इसीलिए ये स्पष्ट नहीं हो पाया !
परबत के पैताने पहुँचे परबत के सिरहाने भी
कहाँ-कहाँ तक ले जाते हैं अक्सर कई बहाने भी......ये रामकुमार कृषक जी की कविता है , आनंद लीजिये , खुश रहिये ! सादर
माननीया सविता जी , सुन्दर अभिव्यक्ती ! कभी ये संस्कार संयुक्त परिवारों में बच्चों को घुट्टी में मिलते थे ! कैसी विडंबना है की आज प्रश्न खड़ा होता है की पैताने बैठने में क्या हर्ज़ होता ? सिरहाने-पैताने बैठने की समझ अथवा प्रातःकाल अपने से बड़ों का चरण-स्पर्श करने जैसी छोटी-छोटी बातें कहानी के पन्नो में सिमट कर रह गई हैं ! इन्हें पंक्तियों में उकेरने के लिए साधुवाद ....
शीर्षक समझ नहीं आ रहा था दी तुरंत ..सम्मान ही सुझा उस समय
इन्तजार भी नहीं करें जैसे लिखी दोबार पढ़ी और यहाँ डाल दी ....ये प्रभाकर भैया कि माल्यार्पण वाली (गहरी खाई ) पढने के बाद अचानक दिमाग में आ गयी
आदरणीया राजेश दी सादर नमस्ते ..दिल से आभार आपका दी मेरे मन को बखूबी पढ़ा और बोला आपने ..आभार दिल से
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online