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सम्मान : लघुकथा

"कुछ सिखाओं अपनी माँ को | शहर में रहते पच्चीसों साल हो गये पर रही गंवार की गंवार |"
" बड़े साहब कितनी बार कहें बैठ जाओ पर ये बैठी नहीं |"
"कइसे बैठती जी, वो 'पैताने' बैठने को कहत रहा | "...सविता मिश्रा

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by savitamishra on April 15, 2015 at 11:27pm

हरी भैया शुक्रिया दिल से

Comment by savitamishra on April 15, 2015 at 11:26pm

वंदना sis लडकियों को भी पैताने नहीं बैठने देते थे क्योकि उनमे देवी का रूप मानते थे ..मानते तो थोडा अब भी हैं ...सादर आभार आपका

Comment by savitamishra on April 15, 2015 at 11:25pm

आदरनीय गोपाल चाचाजी और आदरनीया गिरिराज भैया आप दोनों जन को सादर नमस्ते पहले ...
और जबाब राजेश दी के कमेन्ट से मिल ही गया होगा आपको ..मेरे मन को बखूबी राजेश दी और वंदना sis ने पढ़ा और बोला हैं |
सादर आभार आप दोनों जन का मेरा मार्गदर्शन करने के लिय


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 15, 2015 at 10:57pm

इस लघु कथा का नाम स्वाभिमान होता तो ज्यादा बेहतर होता| 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 15, 2015 at 10:55pm

स्वाभिमान को केन्द्रित कर लिखी गई लघु कथा बहुत शानदार ,मैं नहीं समझती इसमें सम्प्रेषणीयता  की कोई कमी है ,संस्कार के अनुसार बड़ों को अर्थात वृद्धों को सिरहाने पर बैठने  को कहते हैं वो स्त्री वृद्धा होगी जिसको  पैताने पर बैठने में स्वाभिमान आड़े आ रहा होगा वृद्धा भी न हो स्त्री तो थी जिसका सम्मान पहले किया जाता है ..आज के मोर्डन समाज में भी लेडीज फर्स्ट कहकर सम्मान दिया जाता है| बहुत- बहुत बधाई आपको सविता जी 

Comment by Hari Prakash Dubey on April 15, 2015 at 10:04pm

आदरणीया सविता जी , मैं  भी कुछ कह नहीं पा  रहा हूँ , प्रयासरत  रहिये , शुभकामनायें सादर !

Comment by vandana on April 15, 2015 at 9:12pm

बदलते संस्कारों पर चोट करती सार्थक रचना

सच कहा आपने हमारे यहाँ अपने से बड़ों के पैताने बैठने के संस्कार हैं मुझे याद है दादी कहती थीं कोई बात नहीं लड़कियां तो सिरहाने भी बैठ जाती हैं पर माँ और पापा तुरंत कहते ....नहीं यह तो आदत पड़ती है लड़कियां और लड़के एक ही बात सीखें और आज तक बड़ों के आते ही खड़े हो जाना उनके लिए स्थान छोड़ देना सिरहाने न बैठना ये ऐसी बाते हैं जिन्हें देखकर बड़ों का हमेशा आशीर्वाद ही मिला है 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 15, 2015 at 6:37pm

आदरनीया सविता जी , आदरणीय गोपाल जी की बातों से मै भी  सहमत हूँ ,  शिल्प का तो ज्ञान नही है पर बात तो मै भी समझ नहीं पाया । प्रयास के लिये आपको बधाई ॥

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 15, 2015 at 6:09pm

सिरहाने बैठने को कहता तो क्या उचित होता ? कहानी अपनी बात स्पष्टता से नहीं कह पा रही है . सादर ,.

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