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शायद हो ख्वाब

तुम्हे व्योम में उड़ते देखा

तुम्हारे बाल बल खाते

और

लहराता प्यार का आँचल

उड़ने की होती है अपनी ही मुद्रा

परियो के अनुराग सी

नैनों के राग सी

प्रात के विहाग सी

इस उड़ने में नहीं कोई स्वन   

या पद संचालन की अहरह धुन

उड़ते ही रहना मीत

धरणि पर न आना

रेशम सी किरणों पर मधु-गीत गाना

दूर तो रहोगी, पर दृग-कर्ण-गोचर

पास आओगी तो

फिर एक अपडर

धरती पर टिकते ही परी जैसे पांव

हाँ, मुझे मिलेगी आँचल की छाँव

कर देगी घायल,

पायल की साज

ख्वाब मेरे तोड देगी

वह आवाज

तब क्या रह पायेगा जीवन शेष

सोच मेरे निर-अवयव मेरे निर्विशेष !

(मौलिक व् अप्रकाशित )

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Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on April 30, 2015 at 4:39pm

उड़ने की होती है अपनी ही मुद्रा

परियो के अनुराग सी

नैनों के राग सी

प्रात के विहाग सी

इस उड़ने में नहीं कोई स्वन   

या पद संचालन की अहरह धुन
आदरणीय डॉ गोपाल जी सुन्दर रचना अच्छी कल्पना
भ्रमर५

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 20, 2015 at 12:24pm

पंक्तियों में बहुत सुंदर भाव उभारें है आदरणीय डा.गोपाल जी.

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on April 20, 2015 at 7:47am

सुंदर भाव आदरणीय !.....

तुम्हारे बाल बल खाते

और

लहराता प्यार का आँचल

उड़ने की होती है अपनी ही मुद्रा

Comment by shree suneel on April 20, 2015 at 2:02am
आदरणीय डा0 गोपाल नारायण सर, आपकी कविता से हिन्दी रचनाओं को पढ़ने का सुख प्राप्त होता रहता है. इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए बहुत-बहुत बधाई.
Comment by Dr. Vijai Shanker on April 19, 2015 at 10:20pm
उड़ते ही रहना मीत
धरणि पर न आना
रेशम सी किरणों पर मधु-गीत गाना
दूर तो रहोगी, पर दृग-कर्ण-गोचर
वाह ! क्या अभिलाषा है, बहुत ही सुन्दर, बधाई आदरणीय डॉ O गोपाल नारायण जी , सादर।
Comment by Samar kabeer on April 19, 2015 at 2:44pm
जनाब डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी,आदाब,ख़ूबसूरत शब्दों से सजी हुई भाव पूर्ण रचना के लिये दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबल फ़रमाऐं |
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 19, 2015 at 1:54pm

सुन्दर कविता पर बधाई आदरणीय!

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