"बापू, हमारे साथ शहर क्यों नहीं चलते ?"
"शहर जा बसेंगे तो खेती कौन करेगा ?"
"क्या रखा है खेती में ? कभी सूखा फसल को मार जाता है तो कभी बेमौसम बरसात।"
"तुम्हें कैसे समझाऊँ बेटा।"
"खुल कर बताओ बापू, दिल पर कोई बोझ है क्या ?"
"ये अन्नदाता की उपाधि का बोझ है बेटा, तुम नहीं समझोगे ।"
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(मौलिक एवँ अप्रकाशित)
Comment
जी बिकुल सही कहा अन्नदाता पर जुम्मेवारियाँ बहुत हैं ....और सरकार ये नहीं समझती सिर्फ़ राजनीती बस और कुछ नहीं ...सादर
किसान की विवशता को प्रभावकारी ढंग से व्यक्त करती सशक्त और सफल लघुकथा पर हार्दिक बधाई निवेदित है आदरणीय योगराज सर.
बहुत दिनों बाद प्रेमचंद की धारा की कोई रचना पढने मिली है जिसमें कृषक वर्ग में मर्म को इतनी बारीकी से अभिव्यक्त किया गया है. इस रचना के लिए धन्यवाद.
बहुत ही संवेदनशील लघुकथा, सर. दिल को छू गई. ह्रदय से बधाईयाँ आपको
आह.......... इसे पढ़ कर बस यही हूक उठी.। किसानों की हालत 15-16 में इतनी दयनीय हो गई है कि आत्महत्या ही उन्हें इससे छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय लगता है .लघुकथा में किसान की विवशता को कम शब्दों में व्यक्त किया गया है जो बेहद प्रभावशाली तरीके से आया है। बधाई स्वीकार करे आ. योगराज सर
आ0 प्रभाकर सर जी, सादर प्रणाम! एक सम्वेदंनशील कथा. ढेरो बधाईया स्वीकार करे. सादर
प्राकर्तिक एवं राजनैतिक मार से दुखी ,हताश एक जिम्मेदार कृषक की अंतरात्मा की आवाज है ये लघु कथा बहुत मार्मिक ...दिल से बधाई लीजिये आ० योगराज जी,इस सशक्त लघु कथा पर.
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