“बहन रो क्यों रही हो !”
“मेरा बेटा.... कहकर, वह अभागी माँ और जोर –जोर से रोने लगी !”
“सखी, पहले ये आँसू पोंछ लो,..अब बताओ, हुआ क्या था ?”
“लाख समझाया , पर नहीं माना, गलत लोगों का साथ , पैसे की भूख, वो और उसके दोस्त रोज आरी लेकर निकल जाते और अपने दादा - परदादा से भी पुराने जमाने के पेड़ काटकर बेच आते, अरे कितनी बार कहा था यह प्रकृति हमारी माँ है, ये पेड़ हमारे जीवनदाता ! “
“ फिर !”
“फिर क्या .. एक दिन उन्होंने वो बड़ा सा पेड़ काटा और वो पेड़, मेरे बेटे पर ही गिर गया... !”
“मौलिक व अप्रकाशित”
Comment
अच्छी लघुकथा, आदरणीय हरिप्रकाश जी. बधाई आपको
अच्छी लघु कथा है विषय अच्छा चुना है आपने हार्दिक बधाई
इस अच्छी लघु कथा के लिए बधाई, आदरणीय |
सोच वास्तव में अच्छी है. लेकिन जाने क्यों बहुत कुछ सामने आने से रह गया जैसा लग रहा है.
प्रस्तुत करने के पूर्व रचना को थोड़ा समय देना था, आदरणीय हरि भाईजी. या, संभव है मैं ही नहीं समझ पा रहा हूँ.
फिर भी आप इस रचना को एक बार फिर से देखियेगा जरूर..
शुभेच्छाएँ.
कई सवाल खड़े कर दिये आपने ....बढ़िया कथा ...सादर
वास्तव में आप की लघुकथा कुछ सोचने को मजबूर करती है . बधाई . अच्छी लघुकथा .
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