“गुरु देव !”
“हाँ बोलो बेटा !”
“लेखन में आपने बहुत कुछ सिखा दिया पर !”
“पर क्या ?”
“पर लगता है आप कहीं चूक गए !”
“अच्छा ! कैसे और तुम्हे ऐसा क्यों लगा ?”
“मेरे लेखन मैं वो बात नहीं आ पा रही है !”
अब गुरु जी थोड़ी देर तक सोचते रहे और तभी एक आवाज़ आई ...पटाक !
शिष्य का गाल लाल हो चुका था , आँख के आगे तारे दिखाई देने लगे .
“अब बोलो बेटा !”
“जी ,समझ गया गुरूजी, बस यही ‘झन्नाटा’ नहीं आ पा रहा था !”
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय हरि प्रकाशजी, आपकी कलम, आपके हाथ, आपका की-बोर्ड.. कहिये क्या चूम लूँ !!
अद्भुत !
बार-बार बधाइयाँ लीजिये.
थोड़ा लाइटर मूड में आज की स्थिति कहूँ?
तो अपनी लघुकथा का अंत सुनिये -
अब गुरु जी थोड़ी देर तक सोचते रहे और तभी एक आवाज़ आई ...पटाक !
शिष्य का गाल लाल हो चुका था. कि, फिर उससे भी तेज़ आवाज़ आयी - फट्टाऽऽक्क्क ..
“अब बोलो बेटा? ..साले, गुरु बनते फिरते हो !" खनखनाती हुई आवाज़ बदस्तूर जारी रही, "..तुम क्या समझाओगे साले.. मैं समझ गया आगे करना क्या है... टेक केयर..”
वाह .... झन्नाटेदार लघुकथा
मुझे भी झन्नाटे की जरुरत है
बचपन याद आ गया! अब कहाँ ऐसा होता है,आजकल तो गुरु शिष्य को डांट भी नही सकता...सुन्दर लघुकथा पर बधाई सरजी!
गुरु काआशीर्वाद किसी भी रूप में मिले उससे तो शिष्य आगे ही बढ़ता है| मैं भी मेरे विद्यार्थियों को व्यवहारिक ज्ञान सिखाने के लिये कई तरह के झन्नाटे देता हूँ...हालाँकि ऐसा नहीं, व्यवहार के!! बहुत ही गजब की लघुकथा !!
गजब!! आदरणीय हरिप्रकाश जी. बधाई
hhhh भय बिन कहा ज्ञान ..जोर का झन्नाटा ...शुक्र हैं सिखाने वाले दूर हैं बैठे ..वर्ना
जी बिलकुल सही झन्नाटा आ ही गया ....चोट दिल पे लगे तो और अच्छा होगा .....
जय हो ...
आजकल मेरी लेखनी भी सुस्त हो रही है
इलाज़ मिल गया .. कल सुबह ही मिलता हूँ उस्ताद साहिब से ..
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