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ग़ज़ल : मैं तो नेता हूँ जो मिल जाए जिधर, खा जाऊँ

बह्र : २१२२ ११२२ ११२२ २२

 

मैं तो नेता हूँ जो मिल जाए जिधर, खा जाऊँ

हज़्म हो जाएगा विष भी मैं अगर खा जाऊँ

 

कैसा दफ़्तर है यहाँ भूख तो मिटती ही नहीं

खा के पुल और सड़क मन है नहर खा जाऊँ

 

इसमें जीरो हैं बहुत फंड मिला जो मुझको

कौन जानेगा जो दो एक सिफ़र खा जाऊँ

 

भूख लगती है तो मैं सोच नहीं पाता कुछ

सोन मछली हो या हो शेर-ए-बबर, खा जाऊँ

 

इस मुई भूख से कोई तो बचा लो मुझको

इस से पहले कि मैं ये शम्स-ओ-क़मर खा जाऊँ

-----------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 13, 2015 at 8:54pm

आ0 धर्मेंद्र भाईजी,  "विष" पिया जाताहै न कि खाया जाता है... इसलिये मुझे मतले में संदेह है ?  शेष शे'र  लाजवाब . दाद कुबूल करे. सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 13, 2015 at 6:42pm

आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , बहुत अलग से रदीफ पर् बहुत लाजवाब गज़ल हुई है  । हार्दिक बधाइयाँ आपको ॥

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on May 13, 2015 at 7:31am

उम्दा बयां है आज के नेताओं का ...भूख मिटती नहीं ....सुंदर शेर सभी ...बधाई ...सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 12, 2015 at 10:31pm

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी बेहतरीन ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं 

आपकी ग़ज़ल की एक शैली विकसित हो गई है. अंदाज़े-बयां, अलग ही पहचान में आ जाता है. 

Comment by Dr. Vijai Shanker on May 12, 2015 at 5:49pm
इसमें जीरो हैं बहुत फंड मिला जो मुझको
कौन जानेगा जो दो एक सिफ़र खा जाऊँ
बहुत खूब , सुन्दर, निसंदेह, बधाई , आदरणीय धर्मेन्द्र जकुमार जी, सादर .
Comment by Samar kabeer on May 12, 2015 at 3:29pm
जनाब धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी ,आदाब,बहुत ही ख़ूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने,पूरी ग़ज़ल एक ही फ़ज़ा में हुई है ,बहुत ही गहरे तंज़ हैं ।
"कैसा दफ़्तर है यहाँ भूख तो मिटती ही नहीं
खा के पुल और सड़क मन है नहर खा जाऊँ"

इस शैर में क़ाफ़िया सही नहीं है,सही शब्द है "नह्र",कृपया देख लीजियेगा ।

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