१२१ २२ १२१ २२ यूं कतरा कतरा शराब पीकर हैं जिन्दा अब तक जनाब पीकर सवाल मुश्किल थे जिन्दगी के मगर दिए सब जवाब पीकर ये मय लगी कडवी सच के जैसी न कह सका मैं ख़राब पीकर पहाड़ सीने पे दर्दो गम के नहीं रहा कोई दवाब पीकर जिन्हें मयस्सर न रोटियाँ थीं वो बन गए थे नवाब पीकर था खौफ आँखों में डूबने का हटाया रुख से नकाब पीकर बिना पिए ही था जो क़यामत मचल उठा वो शबाब पीकर मौलिक व अप्रकाशित |
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आदरणीय मोहन जी ..आपकी प्रतिक्रिया बहुत मजेदार लगी उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद सादर
आदरणीय मिथिलेश जी ..रचना पर आपकी प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद सादर
आदरणीय जीतेन्द्र जी ,..आपके हौसला बढाते शब्दों के लिए ह्रदय से धन्यवाद सादर
आदरणीय विजय सर ..रचना पर आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद सादर
आदरणीय समर कबीर जी ..रचना पर आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद सादर ..आदरणीय सर ज़िन्दगी में दर्द और गम कभी पहाड़ के जैसे हो जाती है ,,किसी पहाड़ के नीचे का दवाब वास्तविक होता है लेकिन दर्द और गम भावनात्मक है उससे महसूस किये जाने वाला दवाब आभासित होता है जिस तरह एनाल्ज़ेसिक से दर्द ख़त्म नही होता है बल्कि दर्द को महसूस नहीं होने देता ..उसी तरह शराब ऐसे हर आभासित दवाब को हटा देती है क्योंकि प्रकृति द्वारा कुछ भी ऐसा जिसे हम अपने अनुसार अनुकूल और प्रतिकूल मानते हैं और दुःख और गम जैसा पर्याय देते हैं पूरी तरह से काल्पनिक होता है ..बस सर कुछ ऐसा ही सोचकर मैंने ये लिखा है लेकिन आपने प्रश्न उठाया है तो इसमें कोई न कोई कमी जरूर होगी ..आप के मशविरे का इंतज़ार रहेगा सादर
बढ़िया ...मगर हर बात पीकर ....यानि की पीने की लत लग गई ...सादर
बहुत सुंदर गजल कही आपने,आदरणीय डा.आशुतोष जी. सभी शेर बहुत अच्छे लगे. दिली बधाई आपको
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