‘आज तो लाला ने भी और मोहलत देने से साफ मना कर दिया । समझ नहीं आ रहा अब क्या होगा? बैंक की किश्तें, अगले महीने छोटी की शादी... इस बेमौसमी बरसात ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा ।’ साहूकार की दुकान से बाहर निकलते हुए परेशानी के आलम में वो अपने साथी से बोला
‘सब्र से काम लो भाई ! अब जो भगवान को मंजूर ... अरे ! उधर क्या करने जा रहे हो ... उस तरफ तो बाजार है ?’
‘एक रस्सी लेने...।’
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
रस्सी ही रह गयी हैं अब बेचारो की किस्मत में ...सादर नमस्ते भैया ...बढ़िया कथा
लघुकथा को अपना अमूल्य समय देने हेतु आदरणीय जितेन्द्र भाई, आदरणीय श्याम नारायण वर्मा, आदरणीय माला झा, आदरणीय चंद्रेश भाई, आदरणीय विनय भाई, आदरणीय अमन कुमार जी, आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी, आदरणीय डॉ आशुतोष जी, आदरणीय कृष्ण मिश्रा जी, आदरणीय विजय निकोर जी का बहुत बहुत धन्यवाद । आदरणीय अमन कुमार जी साहूकार (आढ़तीयों) की गद्दियां प्राय अनाज मंडियों में हुआ करती हैं और आम जरूरत की चीजों लिए दुकानें अलग बाजार में होती है । सादर ।
अच्छी लघुकथा के लिए बधाई।
संवेदनशील विषय पर बेहतरीन लघुकथा! हार्दिक बधाई आ० प्रभाकर सर!
आदरणीय रवि जी .मजबूर आदमी और क्या करे,,दिल को छू लेने वाली रचना ..लेकिन ऐसी परिस्थित में आदमी को हौसले से काम लेना चाहिए ..यह कदम लोग उठा लेते हैं लेकिन ये गलत है ,,,इस रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर
बहुत मार्मिक , मौजूं और बेहतरीन लघुकथा | बधाई आदरणीय.
साहूकार की दुकान बाजार मे नही थी क्या ?
कथा का सार अच्छा है ,,,,
जब किये गए कर्म का उचित फल नहीं मिलता, तो नकरात्मक उर्जा कर्म के अनुसार विपरीत और बराबर उत्पन्न हो ही जाती है| फिर व्यक्ति उसके अनुसार कुछ न कुछ गलत कर ही बैठता है| इतने बड़े सिद्धांत को कुछ पंक्तियों में सहज ही समझा दिया आपने आदरणीय रवि प्रभाकर जी सर| नमन आपको|
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