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मुहब्बत का मेरी कोई नशा है क्या नहीं (ग़ज़ल 'राज')

१२२२ १२२२ १२२२ १२

तेरी तहरीर में हर्फ़े वफ़ा है क्या  नहीं

कहीं दिल में मेरी कोई जगा (जगह )है क्या  नहीं

 

पँहुचते ही नहीं मुझ तक कभी तेरे ख़ुतूत

लिखा उन पर मेरे घर का पता है क्या  नहीं

 

मेरे ही सामने करते हो गैरों पे करम

इन आँखों में कहीं कोई हया है क्या नहीं

 

तेरे प्याले में मैंने कर दिया ख़ाली सबू

मुहब्बत का मेरी कोई नशा है क्या नहीं

 

फ़सुर्दा फूल बन के रह गई चाहत मेरी

इनायत में तेरी ताज़ा हवा है क्या नहीं

 

क़ज़ा तक ले गई मुझको मेरी रुसवाईयाँ

दुआओं में तेरी कोई  शिफ़ा है क्या नहीं

 

नज़र के सामने आके कशीदा ही रहे

कहूँ मैं क्या तुझे तेरी ख़ता है क्या नहीं

हर्फ़े वफ़ा =वफ़ा का शब्द 

सबू =मदिरा का मटका 

शिफ़ा =इलाज स्वास्थ्य 

कशीदा =खिंचे खिंचे ,रुष्ट 

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment by maharshi tripathi on June 2, 2015 at 10:44pm

बेहद खूबसूरत गजल आ. rajesh kumari जी 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 2, 2015 at 9:56pm

आ० दीदी

बेह्तरीन गजल हुई . बधाई हो . सादर

Comment by shree suneel on June 2, 2015 at 9:42pm
नज़र के सामने आके कशीदा ही रहे
कहूँ मैं क्या तुझे तेरी ख़ता है क्या नहीं... बहुत ख़ूब
अच्छी ग़ज़ल कही आपने आदरणीया. बधाइयाँ..
Comment by narendrasinh chauhan on June 2, 2015 at 4:58pm

खूब सुन्दर ग़ज़ल के दाद कुबूल कीजिये


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 2, 2015 at 3:18pm
आ.सौरभ जी,उस मिसरे में से वो डिलीट कर दीजिये प्लीज फोन से एडिट नहीं हो पा रहा.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 2, 2015 at 3:12pm
आ.मोहन सेठी जी,आपका तहे दिल से आभार.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 2, 2015 at 3:10pm
आ.सौरभ जी,अच्छा ध्यान दिलाया इस मिसरे में वो जाने कहाँ से टपक आया इसे ठीक कर लूँगी आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सफल हुआ तीन दिन से मोबाइल से ही काम चला रही हूँ घर में पूरी वायरिंग चेंज हो रही है.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 2, 2015 at 3:03pm
आ.समर कबीर भाई जी,ग़ज़ल पर आपकी दाद मिली लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से आभार बह्र लिखना भूल गई थी वैसे आ.सौरभ जी ने लिख दी फिर भी एडिट कर दूँगी.

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 2, 2015 at 1:57pm

१२२२ १२२२ १२२२ १२ के वज़न पर   पँहुचते ही नहीं मुझ तक वो कभी तेरे ख़ुतूत   मिसरे को न देख हैरानी हुई है, आदरणीया राजेश कुमारीजी..

ग़ज़ल वैसे बहुत शान्दार हुई है. दाद कुबूल कीजिये..
सादर

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on June 2, 2015 at 10:57am

ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिये बधाई ...सादर 

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