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मुतदारिक मुसम्मन सालिम 

212   212   212   212

आपकी  थी  हमें  भी  बहुत  कामना

आज   संयोग   से  हो गया सामना

 

आँख से आँख अपनी मिली इस तरह

रस्म भर  ही रहा  हाथ  का थामना

 

मयकशीं  जो  करूं तो  नशा यूँ चढ़े

और  आये  कभी  हाथ में जाम ना

 

इश्क आँखों  में जब से लगा नाचने

हो  गयी  पूर्ण   सारी  मनोकामना

 

हाथ में  हाथ  ले  बात की थी कभी

याद है वह  सुहानी तुम्हें  शाम ना

 

इश्क की मय हुयी है  मयस्सर जिसे

वह  नशेड़ी  रहा  आदमी  आम ना

 

जब तलक हम जहाँ से नही जायेंगे

तब तलक  है कहाँ  कोई आराम ना 

 

 

 (मौलिक व् अप्रकाशित )

 

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 25, 2015 at 10:06am

आ० मिथिलेश जी

आभार सादर.


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Comment by मिथिलेश वामनकर on June 25, 2015 at 1:20am

आदरणीय गोपाल सर, वाह वाह क्या बढ़िया ग़ज़ल कही है बस आनंद आ गया, बस शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं 

इस शेर ने तो दिल ही लूट लिया -

आँख से आँख अपनी मिली इस तरह

रस्म भर  ही रहा  हाथ  का थामना

वाह वाह .... दाद दाद ढेर सारी दाद 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 13, 2015 at 9:53pm

प्रिय कृष्णा

मेरेपिता कह्तेथे  -आदमी जीवन भर सीखता है और अधूरा ही संसार से उठ जाता है- गजल तो मैंने अभी शुरू की . पर स्सीखने की कोई उम्र नहीं होती - कबीर जी कहते है -

कहैं कबीर जाय  दो बही  i जब ते चेतो तब ते सही  ............................ सस्नेह .

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 13, 2015 at 9:05pm

वाह! आदरणीय गोपाल सर! गज़ल पर आपके प्रयासों पर मैं नतमस्तक हूँ,आपके जैसा विद्यार्थी मिलना बहुत ही मुश्किल है,जिस पड़ाव पर अक्सर व्यक्ति अपने रचनाकर्म के मान में चूर मिलता है,उसी जगह पर हर तरह से सक्षम होते हुए भी सहज भाव से गज़ल पर आपका विद्यार्थी भाव सदैव विद्यार्थी बने रहने की मिसाल दे रहा है!अभिनन्दन!

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 10, 2015 at 12:27pm

प्रिय सोमेश

आभार, सस्नेह .

Comment by somesh kumar on June 9, 2015 at 11:01pm

इश्क की मय हुयी है  मयस्सर जिसे

वह  नशेड़ी  रहा  आदमी  आम ना

  क्या बात कही आदरणीय पूरी गज़ल ही प्यार के नशे में झूम रही है |

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 9, 2015 at 11:36am

आ० सुनील जी

सादर आभार .

Comment by shree suneel on June 8, 2015 at 10:43pm
आँख से आँख अपनी मिली इस तरह
रस्म भर ही रहा हाथ का थामना.... बहुत ख़ूब
अच्छी प्रस्तुति आदरणीय गोपाल नारायण सर. बधाई आपको.
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 8, 2015 at 4:31pm

आ० समीर कबीर जी

आप कमिया जरूर बताएं तभी सीख पाउँगा , सादर .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 8, 2015 at 4:30pm

आ० चौहानजी

बहुत शुक्रिया

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