मुतदारिक मुसम्मन सालिम
212 212 212 212
आपकी थी हमें भी बहुत कामना
आज संयोग से हो गया सामना
आँख से आँख अपनी मिली इस तरह
रस्म भर ही रहा हाथ का थामना
मयकशीं जो करूं तो नशा यूँ चढ़े
और आये कभी हाथ में जाम ना
इश्क आँखों में जब से लगा नाचने
हो गयी पूर्ण सारी मनोकामना
हाथ में हाथ ले बात की थी कभी
याद है वह सुहानी तुम्हें शाम ना
इश्क की मय हुयी है मयस्सर जिसे
वह नशेड़ी रहा आदमी आम ना
जब तलक हम जहाँ से नही जायेंगे
तब तलक है कहाँ कोई आराम ना
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
आ० अनुज
आपकी इस्लाह बहुत जरूरी है . सादर .
सरना जी
आपका आभार . बात लय के अधूरे पन की नहीं बल्कि काफिये के तंगी की है आमना, सामना, थामना. मनोकामना के बाद काफिया ही नहीं है सो शब्द जोड़कर काफिया बनाने से लय कुछ जरूर बाधित हुयी गजल में काफिये का ध्यान रखना पडेगा .
आ० वीनस जी
आपको ही पढ़कर लिखने का प्रयास कर रहा हूँ . सादर .
आ० अनुज
आपका मशवरा बहुत सही है . मैं एडिट करता हूँ . सादर .
जब तलक हम जहाँ से नही जायेंगे
तब तलक है कहाँ कोई आराम ना, बहोत खूब ,सर , वैसे भी किस जीव की तृष्णा कब मिटती
आदरणीय बड़े भाई , क्या बात है , अब सब ठीक है ! पुनः बधाई आपको ।
आँख से आँख अपनी मिली इस तरह
रस्म भर ही रहा हाथ का थामना
क्या बात है सर क्या मिसरे उठाये हैं … गहन भावों से युक्त इस ग़ज़ल की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय डॉ गोपाल भाई साहिब। पता नहीं कहीं कहीं गेयता में कमी लगी जैसे ''और आये कभी हाथ में जाम ना''(कुछ अधूरी सी लय ) कृपया अन्यथा न लेवें ये मेरा दृष्टिकोण है हो सकता है मैं गलत होऊं। अनुज समझ के क्षमा करना। उत्तम भावों की इस ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।
आँख से आँख अपनी मिली इस तरह
रस्म भर ही रहा हाथ का थामना
इस शेर ने तो लूट लिया ... वाह वा
एक छोटी सी कमी की ओर गिरिराज जी ने इंगित कर ही दिया है /.....
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , क्या खूब गज़ल कही है , लाजवाब ! दिली बधाइयाँ स्वीकार करें । कुछेक अशआर मे तकाबुले रदीफ दोष दिख रहा है -- 3,4,5,7, आप सक्षम हैं , मुझे विश्वास है आप सुधार लेंगे ॥
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