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गज़ल -( फिल बदीह ) - हौसले जो दे रहे थे वो थके - हारे मिले

दिया गया मिसरा -"चिलचिलाती धूप में जब मोम से रिश्ते मिले।"

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2122   2122    2122   212

 

हौसला जो दे रहे थे वो थके - हारे मिले

ताड़ सी ऊँचाइयों वाले बहुत बौने मिले

 

आस्था को व्यर्थ की बातें कहा करते थे जो

जब कठिन आया समय , वो दैर में झुकते मिले 

 

जिनका दावा रहबरी का था उन्ही के पैर क्यूँ

मोड़ पर फिर लड़खड़ाये , दम ब दम रुकते मिले

 

क्यूँ यक़ीं कर लूँ किसी पे, तुम सा अपना भी अगर

उस्तरा लाये छिपा के , पीठ पर साधे मिले  

 

आज उजली धूप के कानून के रक्षक हैं जो

रात की तारीक़ियों में,  आइना तोड़े मिले

 

लाठियाँ जिनकी चलीं थीं नातुवाँ की पीठ पर

गिड़गिड़ाते, मंत्रियों से हाथ भी जोड़े मिले

 

जिनपे हमको था यक़ीं , हैं रोशनी के हम सफर

वो गड़े पत्थर नुमा अब राह के रोड़े मिले

 

बीच उनके हम कहाँ मिल्लत कराते , जो सभी

दरमियाँ खोदे हैं खाई , हर क़सम तोड़े मिले

 

------------------------------------------------- 

मौलिक एवँ अप्रकाशित 

 

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Comment by shree suneel on June 9, 2015 at 9:45am
जिनका दावा रहबरी का था उन्ही के पैर क्यूँ
मोड़ में फिर लड़खड़ाये , दम ब दम रुकते मिले.. . व्वाहह.. बढ़िया..
मतला भी ख़ूब है आदरणीय. बधाई आपको.
Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on June 9, 2015 at 7:41am

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी ....वाह बहुत खूब कहा ...

हौसले जो दे रहे थे वो थके - हारे मिले

ताड़ सी ऊँचाइयाँ वाले बहुत बौने मिले


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 9, 2015 at 6:38am

आदरणीय विनय कुमार भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका आभारी हूँ ।

Comment by विनय कुमार on June 8, 2015 at 8:45pm

// क्यूँ यक़ीं कर लूँ किसी पे, आपसे अपने अगर
उस्तरा लाये छिपा के , पीठ पर साधे मिले // , बहुत खूबसूरत , बधाई इस प्रतुति के लिए आदरणीय..


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Comment by गिरिराज भंडारी on June 8, 2015 at 2:50pm

आदरणीय महर्षि भाई , सराहना के लिये आपका आपका बहुत आभार ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on June 8, 2015 at 2:49pm

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , जैसे तरही मुशयरे में एक मिसरा दिया जाता है , वैसे ही फिल बदीह मे भी मिसरा दिया जाता  है , बस फर्क ये है कि तरही मुशायरे में महीने भर  पहले मिसरा दे देते हैं और फिल बदीह मे उसी समय देते हैं और उसी समय गज़ल कह के पोस्ट कर दिया जाता है ,  बस एक दो घंटे का समय रहता है ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 8, 2015 at 2:45pm

आदरनीय समर भाई , आपने गज़ल पास कर दी तो मन को तसली हुई , सराहना के लिये आपका आभर । आपने सही कहा , काव्योदय मे रोज 7 - 7.30 बजे मिसरा दिया जाता है , और 11 तक गज़ल कहनी होती है , अभी यही मस्क जारी है ॥

Comment by maharshi tripathi on June 8, 2015 at 2:36pm
har..misra kabile tareef hai..bas waah waah hi nikal rhi...aa. giriraj sir ji.....bahut bahut badhai aapko..
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 8, 2015 at 2:24pm

आ० अनुज

यह फिल बदीह क्या बला है , ज़रा समझायें .सादर .  

Comment by Samar kabeer on June 8, 2015 at 2:22pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी,आदाब,एक और अच्छी ग़ज़ल से नवाज़ा है आपने मंच को ,मेरी दुआ है कि ये सिलसिला इसी तरह चलता रहे,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।
फ़िल बदीह ग़ज़ल तो मिसरा मिलते ही फ़ौरन कहना पड़ती है ,ये आपकी दूसरी फ़िल बदीह ग़ज़ल है ,इसके लिये अलग से मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।

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