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"क्या ज़माने से डर गया कोई
एह्द क्यूँ तोड़ कर गया कोई"
ख़्वाब मेरे कुतर गया कोई
फिर नज़र से उतर गया कोई
दावा पत्थर का था , मगर गिर के
शीशे जैसे बिखर गया कोई
तेरे वादे पे ऐतबार किया
यानी बे मौत मर गया कोई
बाइसे बे वफाई जान तो ले -- कारण
क्यों वफा से मुकर गया कोई
एक इनकार तेरी सुन कर ही
देख कितना बिखर गया कोई
तेरे अल्फाज़ थे या जादू था
सुन के कितना सँवर गया कोई
है जहाँ फानी , तू पलक झपका
और याँ से ग़ुज़र गया कोई
इस तरफ है कुआँ , उधर खाई
फिर उसी रह गुज़र गया कोई
वक़्त की मार जब पड़ी यारों
देखो कितना सुधर गया कोई"
कुछ तो लूटा ही होगा शहरों ने
"गाँव क्यूँ लौट कर गया कोई" ?
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका आभारी हूँ ।
आदरणीय राहुल भाई , सराहना के लिये आपका आभार ।
आदरणीय मिथिलेश भाई ,हौसला अफज़ाई का शुक्रिया ।
इस अच्छी ग़ज़ल केलिए दिल से दाद लीजिये आदरणीय गिरिराजभाई.
आदरणीय गिरिराज सर बढ़िया फ़िल बदीह ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद हाज़िर है
आदरणीय विनय भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया ।
// कुछ तो लूटा ही होगा शहरों ने
"गाँव क्यूँ लौट कर गया कोई" // . वाह बेहतरीन ग़ज़ल हुई है आदरणीय , दिली बधाई..
लाजव़ाब लाजव़ाब लाजव़ाब! हर शेर गज़ब हुए हैं! मुकम्मल गजल हुयी है आ० गिरिराज सर अभिनन्दन!
आदरणीय श्री सुनील भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका आभारी हूँ ।
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