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ये ज़मीं सारी मेरा घर कह लें
आप आयें जहाँ से, दर कह लें
जो कमाता है, बांटने के लिये
है तो इंसाँ, मगर शज़र कह लें
जान रखता हूँ मै हथेली पर
दोस्त माना मुझे अगर कह लें
सच को सच बोलने की आदत है
मेरी राहों को पुर ख़तर कह लें
आपके दर पे मांगने आया
आप चाहें, अगर- मगर कह लें
दिल के जज़्बात पिरो लाया हूँ
बिन पढ़े आप बे असर कह लें
मेरे अहबाब मेरी क़ुव्वत हैं
मेरी ख़ातिर, हैं बाल-ओ- पर कह लें
भीड़ मेरी तरफ जो लगती है
अस्ल में है उधर , उधर कह लें
मै ने बस आइना दिखाया था
अब ग़लत मुझको उम्र भर कह लें
आग लगती है मेरी बातों से
आप अब से उन्हें शरर कह लें
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ भाई , आपने सही पहचाना , इस रदीफ पर कुछ कहने की सोच के ही गज़ल कही थी । आपका आभार ।
आदरणीय मिथिलेश भाई , आपका आभार ।
यह एक अभ्यासी प्रास हुआ है. हार्दिक बधाई, आदरणीय गिरिराजभाई.
आदरणीय गिरिराज सर शानदार ग़ज़ल हुई है
शेर दर शेर दाद हाज़िर है
आदरणीया कांता जी , आपका हार्दिक आभार ॥
आदरणीय नेरेन्द्र भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका आभारी हूँ ।
क्या खूब गजल कही है..........बेहद उम्दा गजल
आदरणीय दिनेश भाई , हौसला अफज़ाईका शुक्रिया । उस मिसरे मे गलती है , मै सुधार कर लूँगा । आपका आभारी हूँ ।
बहुत खूब .. वाह वाह आदरणीय ... मुबारकबाद ..
दिल के जज़्बात पिरो लाया हूँ... पुनः देखने की ज़रुरत लगती है शायद सर..
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