" आज कैसे याद किया , कोई काम था क्या ?
" नहीं यार , बस यूँ ही तुम्हारी याद आई और चला आया "|
कुछ देर बात चीत चलती रही और फिर वो उठ कर चल दिया | घर पहुँचते ही पत्नी ने पूछा " बात की उनसे , क्या कहा उन्होंने !
" हाँ , कहा तो हैं , देखो क्या होता हैं "|
" जब झूठ बोल नहीं सकते तो क्यों कोशिश करते हो | उनका फोन आया था , कह रहे थे जरूर कोई बात थी लेकिन मुझे बताया नहीं | अभी भी अपने उसूलों का पक्का हैं "|
" देखो तुम्हारे इतना कहने पर मैं चला तो गया था लेकिन कहते नहीं बना | खैर कहीं न कहीं मिल ही जाएगी उसको नौकरी "|
" हाँ , कुछ न कुछ तो कर ही लेगा बेटा , लेकिन तुम्हारे उसूलों की कीमत पर नहीं " और उसने उनका हाँथ अपने हांथों में कस कर थाम लिया | उनके चेहरे पर गहरे सुकून का भाव छा गया , उनके उसूल अभी भी अक्षुण्ण थे |
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आ० विनय जी
इस कथा ने दिल से छुआ क्योंकि मैं भी वसूल पसंद आदमी हूँ . सादर,
बहुत उत्कृष्ट लघुकथा
कथा की गहनता ने गहरे तक छुआ
बधाई आपको इस सफल लघुकथा की प्रस्तुति पर
बहुत बहुत आभार आदरणीय कृष्ण मिश्रा जान गोरखपुरी जी.
बहुत बेहतरीन! बधाई विनयसरजी!
बहुत बहुत आभार आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी.
बहुत बहुत आभार आदरणीया राजेश कुमारी जी , आप ने सराहा | आप का कहना बिलकुल सही है , इस परिवर्तन के बाद लघुकथा का सम्प्रेषण बेहतर हो जायेगा .
सुंदर लघु कथा के लिए बधाई |
बहुत सुन्दर विषय पर लिखी गई है लघु कथा इसमें निहित सन्देश भी स्पष्ट है जो उसूलों के पक्के होते हैं वो किसी से दया की भीख नहीं मान सकते चाहे वो अपनी औलाद के लिए ही क्यूँ न हो |उनका स्वाभिमान सामने आके खड़ा हो जाता है .मर्म बहुत ख़ास है बहुत बहुत बधाई आपको विनय कुमार जी |इसके अंत को इस तरह लिखें तो सम्प्रेषण बेहतर होगा -----
खैर कहीं न कहीं मिल ही जाएगी बेटे को नौकरी "|
" हाँ , किन्तु तुम्हारे उसूलों की कीमत पर नहीं " उसके हाथों को अपने हाथों में लेते हुए पत्नी ने कहा | उसके चेहरे पर गहरे सुकून का भाव छा गया ये सोचकर कि उसके उसूल अभी भी अक्षुण्ण थे |
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