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शीशा से पत्थर जब भी टकराता है
पत्थर पन कुछ और कड़ा हो जाता है
मुँह की बातों का, आँखें प्रतिकार करें
सही अर्थ तब शब्द कहाँ जी पाता है
लाख बदल के बोलो भाषा तुम लेकिन
लहज़ा असली कहीं उभर ही आता है
साजिंदों ने यूँ बदलें हैं साज बहुत
गाने वाला गीत पुराना गाता है
तुम पर्वत पर्वत कूदो , मै नदिया तैरूँ
मित्र, हमारा बस ऐसा ही नाता है
फिर से ताज़ा मत कर लेना जख़्मों को
घाव सूखते वक़्त बहुत खुजलाता है
अब्र ! सुफैदी में अपनी कालिख भर ले
इक सादा दिल, प्यासा तुझ तक आता है
यूँ तो बातें खूब सुनी है मैनें भी
गया सुबह वो, संझा वापस आता है
कल आँधी आयी थी, देखो गुलशन में
आज परिंदा फिर से नीड सजाता है
अपना गुस्सा पुल पे क्यों दिखलाते हो
दो ग़ैरों को ये तो बस मिलवाता है
भ्रम में मत पड़ना मेरी मुस्कानों से
निजाम, अड़ा के नेजा मुझे हँसाता है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
बहुत ही अर्थपूर्ण रचना,
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी आपकी ये बाकमाल ग़ज़ल में हर शेर के अहसास तो गहरे हैं ही सर ....पर ये हमें बहुत कुछ सिखा भी गई | इस बेहतरीन कलाम को नवाजने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया ! बहुत बहुत बधाई , सादर !
भ्रम में मत पड़ना मेरी मुस्कानों से
निजाम, अड़ा के नेजा मुझे हँसाता है......
आदरणीय गिरिराज जी शेर दर शेर खूबसूरत गज़ल कही आपने ....उम्दा कलाम के लिए मुबारकबाद.
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