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ग़ज़ल - पत्थर पन कुछ और कड़ा हो जाता है -( गिरिराज भंडारी )

22  22  22   22   22  2

शीशा से पत्थर जब भी टकराता है

पत्थर पन कुछ और कड़ा हो जाता है

 

मुँह की बातों का,  आँखें प्रतिकार करें

सही अर्थ तब शब्द कहाँ जी पाता है 

 

लाख बदल के बोलो भाषा तुम लेकिन

लहज़ा असली कहीं उभर ही आता है

 

साजिंदों ने यूँ बदलें हैं साज बहुत 

गाने वाला गीत पुराना गाता है 

 

तुम पर्वत पर्वत कूदो , मै नदिया तैरूँ

मित्र, हमारा बस ऐसा ही नाता है

 

फिर से ताज़ा मत कर लेना जख़्मों को

घाव सूखते वक़्त बहुत खुजलाता है

 

अब्र ! सुफैदी में अपनी कालिख भर ले

इक सादा दिल, प्यासा तुझ तक आता है

 

यूँ तो बातें खूब सुनी  है  मैनें  भी

गया सुबह वो, संझा वापस आता है

 

कल आँधी आयी थी, देखो गुलशन में

आज परिंदा फिर से नीड सजाता है

 

अपना गुस्सा पुल पे क्यों दिखलाते हो

दो ग़ैरों को ये तो बस मिलवाता है

 

भ्रम में मत पड़ना मेरी मुस्कानों से

निजाम, अड़ा के नेजा मुझे हँसाता है

***********************************
मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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Comment by narendrasinh chauhan on July 27, 2015 at 10:58am

बहुत ही अर्थपूर्ण रचना,

Comment by Rahul Dangi Panchal on July 27, 2015 at 8:18am
आदरणीय बहुत सुन्दर गजल हुई है बधाइयाँ
Comment by Harash Mahajan on July 26, 2015 at 9:20pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी आपकी ये बाकमाल  ग़ज़ल में हर शेर के अहसास तो गहरे हैं ही सर ....पर ये हमें बहुत कुछ सिखा भी गई | इस बेहतरीन कलाम को नवाजने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया ! बहुत बहुत  बधाई , सादर !

Comment by Dr. Vijai Shanker on July 26, 2015 at 6:32pm
मुँह की बातों का, आँखें प्रतिकार करें
सही अर्थ तब शब्द कहाँ जी पाता है।
बहुत ही अर्थपूर्ण रचना, आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, बधाई, सादर।
Comment by नादिर ख़ान on July 26, 2015 at 5:00pm

भ्रम में मत पड़ना मेरी मुस्कानों से

निजाम, अड़ा के नेजा मुझे हँसाता है......

आदरणीय गिरिराज जी शेर दर शेर खूबसूरत गज़ल कही आपने ....उम्दा कलाम के लिए मुबारकबाद.

Comment by kanta roy on July 26, 2015 at 2:35pm
लाख बदल के बोलो भाषा तुम लेकिन
लहज़ा असली कहीं उभर ही आता है
 ..... हर शेर लाजवाब हुई है .....शीशे से पत्थर का टकरा कर और सख्त हो जाना ये एक नई सोच हुई है । आपके हर एक शेर में बडी ही गुढ़तम अर्थों का समावेश है । चोट करते है सोच पर मन विवश हो उठता है सोचने पर । दिल कह उठता है वाह !!!!! वाह !!!!! करने पर । बधाई आपको आदरणीय गिरीराज भंडारी जी ।

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