क्यों तू बात नहीं करता
उस नीम के पेड़ की?
जिसके भूत की बातों से,
बचपन में मुझे डराता था
और फिर मजे लेकर
मेरी हंसी उडाता थाI
उस कुँए की भी तू
अब बात नहीं करता ,
जिसमे पत्थर फेंक
हम दोनों चिल्लाते थे ,
फिर कुँए के भूत भी
पलटकर आवाज़ लगाते थेI
उन इस्माइल चाचा का भी
जिक्र तू टालता है
जिनके बाग़ से कच्चे
अमरुद खाते थे और
वो कितना चिल्लाते थे,
पर रात को पके अमरुद
खुद घर दे जाते थे I
फोन में तू बातें करता है
गाँव की तरक्की की,
और मै आवाजें सुन लेता हूँ
नीम और कुँए के रोने कीI
क्यों कि यार मै जानता हूँ
कि उस पेड़ पर अब
भूत भी रहने से डरते हैं,
और उस कुँए से भी
लोग दूर ही रहते हैं I
ये तो बता ही सकता है कि
कितनी जोड़ी नपुंसक आँखें
जड़ी थी घरों की मुंडेर पर,
जब उन लड़कियों को मारकर
लटकाया था उस नीम पर?
या जब उनकी माँ
कुँए में कूदी थी
तो क्या कुँए के भूत भी
थे चिल्लाये
या वो भी सहमे रहे
मुहँ में ताला लगाये?
तू कैसे बताएगा
कि इस्माइल चाचा सूनी आँखों से
अब बस दरख्तों को हैं ताकते,
कि उन का बेटा जेहादी हो गया है
और मीठे अमरूदों में अब
शक का ज़हर घुल गया हैI
फिर भी मैं शहर में रहकर
बस गाँव को ही जीता हूँ,
आज के ज़ख्मों को
बीते कल की यादों से सीता हूँ I
तेरे गढ़े हुए उन भूतों से
आज भी मेरा नाता है,
क्या करूँ यार i
गाँव बहुत याद आता हैI
मौलिक और अप्रकाशित
I
Comment
आप देर से ही सही पर आईं तो, इस उत्साह वर्धन के लिए आपका दिल से आभार आ० राजेश कुमारी जी
आ० शरदिंदु जी रचना की सराहना के लिए आपका आभार
आ० मोहन सेठी जी ,कविता पर उत्साहवर्धन के लिए ह्रदय से आभारी हूँ
आज भूत से ज्यादा इंसान खतरनाक हो गए हैं इसमें कोई दो राय नहीं आपने अपनी बिम्बात्मक शैली में गाँव की जिस पावनता को याद दिलाया है वो हृदय स्पर्शी है ..आज कुछ भी तो नहीं रहा पहले जैसा बहुत ही अच्छी रचना है प्रतिभा जी नेट की प्रोब्लम के चलते देर से आना हुआ रचना पर ,दिल से ढेरों बधाई लीजिये |
आदरणीया pratibha pande जी बहुत ही सुंदर एवं भावपूर्ण प्रस्तुति के लिये हार्दिक बधाई ....दिल को छू गई
और मै आवाजें सुन लेता हूँ
नीम और कुँए के रोने कीI
क्यों कि यार मै जानता हूँ
कि उस पेड़ पर अब
भूत भी रहने से डरते हैं,....
जब उन लड़कियों को मारकर
लटकाया था उस नीम पर?
या जब उनकी माँ
कुँए में कूदी थी
तो क्या कुँए के भूत भी
थे चिल्लाये
या वो भी सहमे रहे
मुहँ में ताला लगाये?...
अगर भूत वाकई होते... तो इंसानों की बस्ती से दूर भाग गए होते ...
सुंदर रचना के लिए शुभकामनायें, अदरणीया प्रतिभा जी .....
आदरणीय pratibha pande जी बहुत ही मार्मिक रचना है....मेरी जानिब से ढेरों दाद !! आभार !!
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