चढ़ावा - लघुकथा
''दादू .... !''
''हूँ .... !''
''हम मंदिर में पैसे क्यों चढ़ाते हैं … ?''
''बेटे , हर आदमी को अपनी नेक कमाई से कुछ न कुछ अपनी श्रद्धानुसार प्रभु के चरणों में अर्पण करना चाहिए। ''
''लेकिन दादू , आप तो कहते हैं कि हमारे पास जो भी है तो प्रभु का दिया है … . । ''
''हाँ तो … । ''
''तो जब सब कुछ प्रभु ही देते हैं तो हम फिर उन्हें पैसे क्यों चढ़ाते हैं ?''
दादू निरुत्तर हो पोते का मुख देखने लगे।
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय pratibha pande जी लघु कथा पर आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार।
आदरणीय JAWAHAR LAL SINGH जी लघु कथा पर आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार।
सुन्दर! बड़े रोचक ढंग से आपने प्रहार किया है सादर!
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी मेरे प्रयास आपके आत्मीय अनुमोदन ने जो मान दिया है उसके लिए तहे दिल से शुक्रिया।
आदरणीय Sulabh Agnihotri जी लघु कथा पर आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार।
आदरणीय Dr. Vijai Shanker जी लघु कथा पर आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार।
आदरणीया कांता रॉय जी मेरे प्रयास को इतना मान देने का तहे दिल से शुक्रिया।
आदरणीय सुशील सरना सर, जोर का झटका धीरे से वाली इस शानदार और सफल लघुकथा पर हार्दिक बधाई. पोते के यक्ष प्रश्न पर अच्छे अच्छे आज तक निरुत्तर है. सादर
सत्स वचन
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