पहले तो रविन्द्र ने चाहा,कि न कर दूँ ,क्यूंकि दस बज चुके थे, और सर्दी भी बढ़ रही थी, पर एक साथ पाँच सवारियां देख कर उस ने फेरा लगाने का मन बना लिया । सुबह से कोई अच्छा फेरा भी तो नहीं लगा था । वह सवारियों को थ्रिविलर में बिठा बस स्टैंड से शहर के सुनसान एरिया की तरफ निकल पड़ा जो कभी रौनक भरा होता था, पर जब का हस्पताल को यहाँ से कहीं और शिफ्ट किया तब ज्यादातर दुकानदारों ने दुकानों को पक्के तौर पर ताले लगा दिए,और बाकी अब तक बंद हो चुकी थी ।
हिचकोले खाता थ्रिविलर चारों तरफ फैली सुनसान सड़क से गुजर रहा था, दूर तक कोई रौशनी नजर न आने के कारण सवारियों घबरा रही थी,जहाँ एक तो चौर उच्चके का डर वहीं इससे ज्यादा एक्सीडेंट होने का डर सवारियों को सता रहा था, और वो मन ही मन उस पे गुस्सा निकाल रहे थे ।
जब एक सवारी ने पूछ ही लिया ,”इस की बतियाँ क्यूँ नही जगाई” । तो उसने धीरे से कहा, “हाँ, खराब हो गई है”, “मगर इसे ठीक तो कराना था”, एक बजुर्ग आवाज़ ने कहा
“ऐसा कर आप खुद को और सवारियों को भी खतरे में पाते हो” । पर रविन्द्र उनकी बातों की तरफ बिना ध्यान दिए थ्रिविलर चलाए जा रहा था, मगर सवारिया लगातार कुछ न कुछ कहे जा रही थी । आखिर उस ने थ्रिविलर रोक दिया, “आप तो ऐसे कह रहें जैसे मेरे घर बूढ़े माँ बाप , बीवी ,बच्चे नहीं , मुझे भी.... पर कहाँ से आठ सौ रुपए का प्रबंध करूं, इसे ठीक कराने के लिए” ।
शहर में पहले ही इतने थ्रिविलर, मिन्नी बस्सें तो थी, अब सरकार ने बस चला दी, “अगर आप को खतरा है, तो उतर जाएँ, मैं नहीं जाता । मुझे नही चाहिए किराया भी” । थ्रिविलर में चुप्पी छा गई, फिर एक सवारी ने हमदर्दी जताते हुए कहा, “चलो, कोई बात नहीं धीरे धीरे ध्यान से चलाना”, तब रविन्द्र ने सीट के नीचे से रस्सी निकाल कर फिर थ्रिविलर स्टार्ट किया ।
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय मोहन बेगोवाल जी , आप ने बातों ही बातों में अपने भावों को बखूबी उघाड़ कर रख दिया. इस से सवारी और रिक्शेवाले दोनों की मनोव्यथा का शानदार चित्रण कर दिया. बहुत ही बढ़िया लघुकथा बनी है आप की . बधाई आप को .
आदरणीय मोहन बेगोवाल सर बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है. इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
सुन्दर है !
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