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मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़ाइलुन

सब छोड़ छाड़ हम्द-ओ-सना में लगा रहा
आफ़त पड़ी जो सर प दुआ में लगा रहा

अब उससे नेकियों की तवक़्क़ो फ़ुज़ूल है
जो सारी उम्र जुर्म-ओ-सज़ा में लगा रहा

सीने में अपने झाँक के देखा नहीं कभी
हर सम्त वो तलाश-ए-ख़ुदा में लगा रहा

हिम्मत थी जिसमें ,छीन लिया बढ़ के अपना हक़
मजबूर था जो आह-ओ--बुका में लगा रहा

अच्छाई उसको छू के भी गुज़री नहीं कभी
उसका दिमाग़ सिर्फ़ ख़ता में लगा रहा

मैंने तो जान बूझ के धोया नहीं कभी
उसके लहू का दाग़ क़बा में लगा रहा

एह्ल-ए-जफ़ा ने ख़ूब रचीं साज़िशें "समर"
जो था वफ़ा परस्त,वफ़ा में लगा रहा

------
हम्द-ओ-सना :- ईश्वर की तारीफ़ (भक्ति)
तवक़्क़ो :- आशा
सम्त :- दिशा
आह-ओ-बुका :-चीख़ चीख़ के फरियाद करना
मक़नातीस :- चुम्बक
साज़िशें :- षडयंत्र
------

"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित

Views: 771

Comment

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Comment by दिनेश कुमार on August 7, 2015 at 5:21pm
बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल आदरणीय। मैं भी मिथिलेश भाई से सहमत हूँ कि आदरणीय समर कबीर जी. आपकी ग़ज़लों से हमेशा ग़ज़ल कहने का सलीका सीखने को मिलता है. सादर
Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 7, 2015 at 1:34pm

आदरनीय समर कबीर जी मैं भी आदरणीय मिथिलेश जी बातों से पूरे तरह इत्तेफाक रखता हूँ ,,आपकी ग़ज़ल से वाकई बहुत कुछ सीखने को मिलता है ..चाहें वो आपकी खुद की ग़ज़ल हो या दोसरों की ग़ज़लों पर आपकी प्रतिक्रिया ..मैं बहुत ध्यान से पढता हूँ और अमल में लाने की कोशिस करता हूँ इस रचना के लिए ढेर सारे बधाई के साथ सादर

Comment by Ravi Shukla on August 7, 2015 at 11:30am

आदरणीय समर कबीर जी

शानदार ग़ज़ल हुई है दिली दाद कुबूल करें मिथिलेश जी की बात से हम भी सहमत है आपकी ग़ज़ल से सीखने का सलीका मिलता है

और आप की फराख दिली भी आज देखने को मिली । ओ बी ओ मंच को सादर नमन । और ग़ज़ल के लिये फिर से हर शेर पर दाद हाजिर है ।

Comment by Samar kabeer on August 6, 2015 at 10:45pm
जनाब मिथिलेश वामनकर जी,आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Samar kabeer on August 6, 2015 at 10:43pm
जनाब "जान" गोरखपुरी साहिब,आदाब,ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ,मेरा मक़सद किसी धर्म विशेष पर टिपण्णी करना नहीं था,शैर जिस मक़सद को सामने रख कर कहा था लगता है पाठकों की उस तक रसाई नहीं हो सकी,मेरे शैर से अगर किसी का दिल दुखा है तो मैं मुआफ़ी चाहता हूँ,एडमिन साहिब से गुज़ारिश कर दी है ,यह शैर ग़ज़ल से निकाल दिया जाएगा ।
Comment by Harash Mahajan on August 6, 2015 at 10:36pm
आ0 समर जी आपकी पेशकश बहुत ही बेहतरीन हुई है । मेरी जानिब से आपकी इस ग़ज़ल पर ढेरों दाद । साभार ।
Comment by Samar kabeer on August 6, 2015 at 10:26pm
जनाब एडमिन साहिब,मेरी ग़ज़ल का ये शैर :-

"ताक़त थी मक़नातीस की जादू नहीं था वो
बुत सोमनाथ का जो हवा में लगा रहा"

कृपया अपने तत्काल प्रभाव से मेरी ग़ज़ल से निकाल दें ।
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on August 6, 2015 at 8:52pm

सीने में अपने झाँक के देखा नहीं कभी
हर सम्त वो तलाश-ए-ख़ुदा में लगा रहा

आ० समर सर बहुत सुन्दर गज़ल हुयी है! बधाई!

पर मुझे इस शेर पर सख्त आपत्ति है और निवेदन करता हूँ आ० के कृपया ये शेर गज़ल से ख़ारिज करें-

ताक़त थी मक़नातीस की,जादू नहीं था वो
बुत सोमनाथ का जो हवा में लगा रहा

चुम्बक की ताकत रही हो, जादू रहा हो, या बनाने वाले की महारथ या भगवान् का चमत्कार... इस तरह की धार्मिक बातों का खंडन जिसके बारे में कोई स्पस्ट नही जानता उस पर अपने मत अनुसार शेर कहना सही नही है!आ० बुतपरस्ती के किलाफ शेर कहिये ठीक है,किसी कुप्रथा पर शेर हो ठीक है पर किसी धर्म की मान्यता पर विशेषकर नाम लेकर शेर कहना मुझे सरासर गलत लगता है! आ० समर सर आप हर तरह से मुझसे वरिष्ठ है मुझे पूर्ण विशवास है के आप मेरे भाव को समझ सकेंगे! सादर!


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Comment by मिथिलेश वामनकर on August 6, 2015 at 12:25pm

आदरणीय समर कबीर जी बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमायें. आपकी ग़ज़लों से हमेशा ग़ज़ल कहने का सलीका सीखने को मिलता है. सादर 

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