मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़ाइलुन
सब छोड़ छाड़ हम्द-ओ-सना में लगा रहा
आफ़त पड़ी जो सर प दुआ में लगा रहा
अब उससे नेकियों की तवक़्क़ो फ़ुज़ूल है
जो सारी उम्र जुर्म-ओ-सज़ा में लगा रहा
सीने में अपने झाँक के देखा नहीं कभी
हर सम्त वो तलाश-ए-ख़ुदा में लगा रहा
हिम्मत थी जिसमें ,छीन लिया बढ़ के अपना हक़
मजबूर था जो आह-ओ--बुका में लगा रहा
अच्छाई उसको छू के भी गुज़री नहीं कभी
उसका दिमाग़ सिर्फ़ ख़ता में लगा रहा
मैंने तो जान बूझ के धोया नहीं कभी
उसके लहू का दाग़ क़बा में लगा रहा
एह्ल-ए-जफ़ा ने ख़ूब रचीं साज़िशें "समर"
जो था वफ़ा परस्त,वफ़ा में लगा रहा
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हम्द-ओ-सना :- ईश्वर की तारीफ़ (भक्ति)
तवक़्क़ो :- आशा
सम्त :- दिशा
आह-ओ-बुका :-चीख़ चीख़ के फरियाद करना
मक़नातीस :- चुम्बक
साज़िशें :- षडयंत्र
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"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
आदरनीय समर कबीर जी मैं भी आदरणीय मिथिलेश जी बातों से पूरे तरह इत्तेफाक रखता हूँ ,,आपकी ग़ज़ल से वाकई बहुत कुछ सीखने को मिलता है ..चाहें वो आपकी खुद की ग़ज़ल हो या दोसरों की ग़ज़लों पर आपकी प्रतिक्रिया ..मैं बहुत ध्यान से पढता हूँ और अमल में लाने की कोशिस करता हूँ इस रचना के लिए ढेर सारे बधाई के साथ सादर
आदरणीय समर कबीर जी
शानदार ग़ज़ल हुई है दिली दाद कुबूल करें मिथिलेश जी की बात से हम भी सहमत है आपकी ग़ज़ल से सीखने का सलीका मिलता है
और आप की फराख दिली भी आज देखने को मिली । ओ बी ओ मंच को सादर नमन । और ग़ज़ल के लिये फिर से हर शेर पर दाद हाजिर है ।
सीने में अपने झाँक के देखा नहीं कभी
हर सम्त वो तलाश-ए-ख़ुदा में लगा रहा
आ० समर सर बहुत सुन्दर गज़ल हुयी है! बधाई!
पर मुझे इस शेर पर सख्त आपत्ति है और निवेदन करता हूँ आ० के कृपया ये शेर गज़ल से ख़ारिज करें-
ताक़त थी मक़नातीस की,जादू नहीं था वो
बुत सोमनाथ का जो हवा में लगा रहा
चुम्बक की ताकत रही हो, जादू रहा हो, या बनाने वाले की महारथ या भगवान् का चमत्कार... इस तरह की धार्मिक बातों का खंडन जिसके बारे में कोई स्पस्ट नही जानता उस पर अपने मत अनुसार शेर कहना सही नही है!आ० बुतपरस्ती के किलाफ शेर कहिये ठीक है,किसी कुप्रथा पर शेर हो ठीक है पर किसी धर्म की मान्यता पर विशेषकर नाम लेकर शेर कहना मुझे सरासर गलत लगता है! आ० समर सर आप हर तरह से मुझसे वरिष्ठ है मुझे पूर्ण विशवास है के आप मेरे भाव को समझ सकेंगे! सादर!
आदरणीय समर कबीर जी बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमायें. आपकी ग़ज़लों से हमेशा ग़ज़ल कहने का सलीका सीखने को मिलता है. सादर
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