2122 2122 212
आप सीमायें अगर लांघें नहीं
बाड़ हम भी आपकी फांदें नहीं
वो समर के वास्ते तैयार हैं
हाथ मेरे आप यूँ बांधें नहीं
हक़ हलाली की कोई रोटी दिखा
भीख से जी कर तो यूँ नाचें नहीं
शेर बन के सामने आजा कभी
गीदड़ों सी पीठ पर घातें नहीं
चैन खातिर दिन तरसता रह गया
नींद वाली थीं कभी रातें नहीं
दिल पढ़ें , नज़रें पढ़ें , आँसू पढ़ें
अस्लिहा के बाब यूँ बांचें नहीं
अस्लिहा – हथियारों , बाब – अध्याय
आप इशारों को समझ के देखिये
सिर्फ मेरी उँगलियाँ देखें नहीं
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीयनरेन्द्र भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका बहुत शुक्रिया ।
खूब सुन्दर ग़ज़ल
आदरणीय मिथिलेश भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका आभारी हूँ ।
आदरणीय गिरिराज सर बढ़िया ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद हाज़िर है.
आदरणीय सुशील भाई , आपकी स्नेहिल सराहना के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।
आदरणीय सुलभ भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
आप सीमायें अगर लांघें नहीं
बाड़ हम भी आपकी फांदें नहीं
… क्या बात है क्या बात है सर .... जिस ग़ज़ल के ऐसे खूबसूरत अशआर हों उसपे क्यों न दिल निसार हो जाए … हार्दिक बधाई आदरणीय गिरिराज भंडारी जी।
दिल पढ़ें , नज़रें पढ़ें , आँसू पढ़ें
अस्लिहा के बाब यूँ बांचें नहीं -- क्या बात है आदरणीय
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