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हम "पत्थर" भी पूजे जाते

आ जाते इक बार अगर जो
तुम हमको भी चूमे जाते।
कई शिलाएं देव हुई हैं
हम "पत्थर" भी पूजे जाते।।

राहों में बेजान पड़े हैं
अपनी गति को ढूंढ रहे हैं।
कभी इधर तो कभी उधर को
राहों में बस घूम रहे हैं।।

अपने सुर्ख गुलाबी वाले
मुझमें रंग जो भरके जाते।
कई शिलाएं देव हुई हैं
हम "पत्थर" भी पूजे जाते।।1।।

ये तन है पर प्राण नहीं है
सांस का कुछ भी पता नहीं है।
दिल तो है पर शांत बहुत है
जीवित हूँ यह एक भ्रान्ति है।

अमृत रस अधरों को देते
हम धड़कन तो पाये होते।
कई शिलाएं देव हुई हैं
हम "पत्थर" भी पूजे जाते।।2।।

यूँ तो गढ़ा गया घिस घिस कर
हाँ कुछ मलिन हुआ हूँ थककर।
बस अपनें मंदिर से अलग हूँ
निखरुँगा मैं तुझसे मिलकर।।

अपने मन मंदिर में हमको
दर थोड़ी सी देते जाते।
कई शिलाएं देव हुई हैं
हम "पत्थर" भी पूजे जाते।।3।।


मौलिक अप्रकाशित

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 23, 2015 at 11:10am

पंकज जी भाव बहुत अच्छे है शिल्प में और र्श्रम  चाहिए .

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 23, 2015 at 9:35am
आदरणीय प्रतिभा पाण्डेय मैम सादर आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 23, 2015 at 9:33am
आदरणीय हर्ष महाजन सर रचना पर हौसलाअफजाई के लिए आभार
Comment by Harash Mahajan on August 23, 2015 at 9:06am
आ0 पंकज जी सही एहसासों से परिपूर्ण आपकी रचना दिल को छु गयी । कितनी सूंदर पक्ति "कई शिलाएं देव हुई हैं"..वाह । दिली दाद । साभार
Comment by pratibha pande on August 23, 2015 at 8:27am
बहुत अच्छे भाव लेकर सुगम सहज ढंग से बह रही है आपकी ये रचना ,बधाई आपको आ० पंकज जी

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