यादों के दरीचों में .....
सच, तुम्हारी कसम
उस वक्त तुम बहुत याद आये थे
जब सावन की पहली बूँद
मेरी ज़ुल्फ़ों से झगड़ा करके
मेरे रुखसारों पर
फिसलने की ज़िद करने लगी
सबा को भी उस वक्त
मेरी ज़ुल्फ़ों से
छेड़खानी करने की ज़िद थी
इस छेड़खानी में कभी बूंदें
रेतीली ज़मीन पर गिर कर
अपना अस्तित्व खो देती थी
तो कभी पलकों की चिलमन पर
सज के बैठ जाती थी
कभी हौले से
रुख़्सार पर फिसलती हुई
मेरी ठोडी पर
किसी को प्यार के निमंत्रण का
आग्रह कर रुक जाती थी
ऎसे में सच ,
उफ्फ तुम्हारा वो स्पर्श
वो ठोडी पर रुकी बूँद को
उंगली के पोर पर लेकर
अपने अधरों पर उसे पनाह देना
आज भी मेरे जिस्म में
सिहरन भर देता है
मैं आज तक
उसी मखमली अहसास से बंधी हूँ
हर पल
बादलों की राह तकती हूँ
कि शायद फिर कोई बूँद
मेरे रुखसारों पे
फिसलने की ज़िद करे
और तुम
चुपके से मेरे अहसास में
अपने स्पर्श का रंग भर जाओ
सच मानो
जब जब आकाश में
बादल छाते हैं
तुम याद बहुत आते हो
मेरी यादों के दरीचों में
अपना अहसास छोड़ जाते हो
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय shree suneel जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरनीय सुशील भाई , विरह मे यादों को सुन्दर शब्द दिये है ! आपको दिली बधाइयाँ ।
आदरणीय मनोज जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीया प्रतिभा जी रचना पर आपकी मनभावन प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार।
आदरणीय मिथिलेश जी रचना पर आपकी मन मुदित करने वाली प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार।
बादलों की राह तकती हूँ
कि शायद फिर कोई बूँद
मेरे रुखसारों पे
फिसलने की ज़िद करे
बहुत ही खूबसूरत रचना आदरणीय सुशील जी ,बधाई आपको
आदरणीय सुशील सरना सर बहुत ही भावपूर्ण रचना की प्रस्तुति हुई है. इस प्रस्तुति पर आपको हार्दिक बधाई
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