उकेर दिया है
समय की रेत पर
अपना हस्ताक्षर.
जानता हूँ
ख़त्म हो जाएगा
रेत के बिखराव से
मेरा वज़ूद.
संभावना यह भी
किसी संकुचन क्रियावश
घनीभूत हो रेत
प्रस्तर बन जाय .
तब देख पाओगे
खंडित होने तक
मेरा हस्ताक्षर.
कुच्छ भी तो नहीं है
अनंत.
(विजय प्रकाश)
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार
kanta roy JEE.
" कुछ भी तो नहीं है अनंत " ---- वाह , मन को कहीं दूर चिंतन मनन को ले जाता हुआ आपका ये हस्ताक्षर , जो रेत पर लिखे है ,जो मिटने के लिए ही उकेरे गये है । बहुत खूब हुई है ये रचना । एक - एक शब्द कई मीलों सी गहराई लिए । बधाई स्वीकार करें इस सुंदरतम रचना के लिए आदरणीय डा. विजय प्रकाश जी
आ. सौरभ जी, मिथिलेशजी,प्रतिभा जी,राम सिरोमणि जी,शिज़्ज़ु शकूर जी,मोहन जी, प्राची सिंह जी, सुनील जी,
आप सबों का स्नेह-लेप लेखन की जीजीविषा को जीवित रखने का अमृत प्रदान करता है. आप सभी मित्रों का बहुत बहुत आभार.
आ० डॉ० विजय प्रकाश शर्मा जी
समय के आईने में आकृतियाँ के बहुत प्रभावी बिम्ब बनना... पर सब कुछ तो क्षणभंगुर ही है.
इसका भान रहे तो नाम..पद..प्रतिष्ठा..पाकर अहंकार में मन कभी न फँसे
इस भावदशा के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएं
प्रभावी प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई
आदरनीय विजय परकाश जी, इस भाव भरी कविता के लिए बधाई कबुल करें
इस रचना पर आपके अनुमोदन की प्राप्ति से प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है. आप सब आदरणीय मित्रों का हार्दिक आभार.
बहुत उत्कृष्ट रचना ,हार्दिक बधाई आपको आदरणीय विजय प्रकाश जी
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