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बारिशों के हादसे जब दामनों तक आ गए
दुख मेरी तन्हाइयों की बस्तियों तक आ गए /1
याद मुझको तो नहीं हैं ठोकरें मैंने भी दी
क्यों ये पत्थर रास्तों के मंजिलों तक आ गए /2
सोचकर निकले थे बाहर कुछ उजाला ढूँढ लें
घर के तम लेकिन हमारे रास्तों तक आ गए /3
नाव जर्जर और पतवारें रहीं सब अनमनी
क्या बताएं किस तरह हम साहिलों तक आ गए /4
हो रही है माँग हर शू जाति क्या औ धर्म क्या
दोष आरक्षण के अब तो काबिलों तक आ गए /5
व्यक्तिवादी सोच बोलूँ या समाजों की चिता
हाथ मासूमों के अब जो बोतलों तक आ गए /6
वो रहे महफूज मिलना छोड़ लिक्खी चिट्ठियाँ
कातिलों के हाथ लेकिन चिट्ठियों तक आ गए /7
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(मौलिक और अप्रकाशित )
Comment
आ० भाई मन जी ग़ज़ल की प्रशंसा कर उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद l
आ० भाई आबिद अली जी उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद l
आ० कान्ता बहन ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार l
याद मुझको तो नहीं हैं ठोकरें मैंने भी दी
क्यों ये पत्थर रास्तों के मंजिलों तक आ गए!
वाह क्या बात है आदरणीय, वधाई आपको!
सोचकर निकले थे बाहर कुछ उजाला ढूँढ लें
घर के तम लेकिन हमारे रास्तों तक आ गए----वाह !!! बहुत खूब कही है आपने जितनी भी कही है। इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई आपको आदरणीय लक्ष्मण जी।
आ0 भाई मनोज जी , गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार ।
आ0 भाई पंकज जी , उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आ0 भाई गिरिराज जी, आपको गजल अच्छी लगी , लेखन सफल हुआ । त्रुटि की ओर ध्यान दिलाने के लिए आभार ।
आ0 भाई मिथिलेश जी , गजल की प्रशंसा कर उत्साहवर्धन करने के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
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