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, लक्ष्मण- रेखा(लघुकथा)

शाम को देश के हर शहर की तरह मेरे शहर के बाज़ारों में भी बहुत भीड़ होती है I बाज़ार की सड़क के दोनों तरफ खड़ी गाड्यिां के बीच रह गई  सड़क पर हर कोई तेज़ी से आगे निकलने की कोशिश करता दिखाई देता है Iचाहे वो  पैदल,टू-व्हीलर रिक्शा,साईकल व कार पे सवार हो, आज मैं  भी तेज़ी से  हर तरह की भीड़ को चीरता  हुआ, बस स्टॉप की और बढ़ रहा था,मगर मेरा शरीर साथ नहीं दे रहा था I इस लिए लोकल बस का इंतजार करना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था I  थ्री- व्हीलर स्टॉप आते ही मैं रुक गया I वहाँ मेरी कालोनी को जाने वाले एक थ्री- व्हीलर खड़ा था, वैसे मैं थ्रीविलर पर बहुत कम ही गया था, मगर आज ......,I

थ्री- व्हीलर में  अभी दो सवारियाँ आ के बैठी थी I मैं भी थ्री- व्हीलर में  बैठ गया I थ्री-व्हीलर के  पास ही एक पतले शरीर की लडकी खड़ी थी, सवारियाँ उसे देखते हुए, धीरे धीरे थ्री- व्हीलर में  बैठती जा रही थी Iमगर वह लड़की न ही इस पर और न ही किसी और थ्री-व्हीलर पर बैठ रही थी I मेरे मन मे  उस के बारे  कई तरह के सवाल पैदा हो रहे थे I और कुछ के जवाब मुझे खुद से ही मिल रहे थे I मगर वहाँ खड़ी लड़की के सबंध में  अजीब ख्याल उठ रहे थे I  जिनको  रोकने की कोशिश करता, मगर सफल न हो पाता I

शायद दूसरी सवारियाँ भी उस लड़की के बारे मेरी तरह ही सोच रहीं होंगी ,इतने में थ्री- व्हीलर पूरी तरह भर गया I  ड्राईवर के साथ वाली सीट पर एक आदमी अपने  कुत्ते के बच्चे के  साथ आ के  बैठ गया, मगर  वह लड़की  पता नहीं किस सोच में  गुम  अभी भी वहाँ खड़ी थी I  थोड़ी देर के बाद वह लड़की अचानक थ्री- व्हीलर के आगे से होती हुई ड्राईवर की सीट पर आ कर  बैठ गई I सभी उस की तरफ देखने लगे I तब उसने  थ्रीविलर स्टार्ट किया और  वे आगे की  तरफ चलने लगा I अब मुझे ऐसा लगा जैसे कोई मेरी सोच में खीचीं लक्ष्मण रेखा के उस पार पहुँच गया हो, और  उसका थ्री- व्हीलर तेज़ी पकड़ने लगा I

.

"मौलिक और अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on November 6, 2015 at 5:16pm
अच्छी कहानी है , बहुत अच्छी कहानी है , भारतीय परिवेश के लिए। हाँ , आज की दुनिया को देखें तो , कितनी लक्षमण रेखाएं हैं जिनकी सीमायें बदलनी चाहिए , जरूरी नहीं , बहुत जरुरी है।
सम्प्रति इस कहानी पर बधाई , आदरणीय मोहन बेगोवाल जी , सादर।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on November 6, 2015 at 9:09am
क्षमा सहित, आदरणीय कृपया शीर्षक को सुव्यवस्थित कर लें, तो बेहतर लगेगा। 'लक्ष्मण-रेखा' (लघुकथा)
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on November 6, 2015 at 8:13am
वाह सर, दिल ख़ुश भी हुआ और नये कथानक पकड़ने की कला, पंच मारने की कला, कथा में सुंदर प्रवाह बरकरार रखने की कला भी सीखने को मिली। हृदयतल से बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ आपको आदरणीय मोहन बेगोवाल जी । अब हम सभी को अपनी सोच को विस्तार देने की कोशिश करनी चाहिए। बहुत ही उम्दा समसामयिक प्रेरक प्रस्तुति।
Comment by Abid ali mansoori on November 4, 2015 at 7:48pm

थोड़ी देर के बाद वह लड़की अचानक थ्री- व्हीलर के आगे से होती हुई ड्राईवर की सीट पर आ कर  बैठ गई I सभी उस की तरफ देखने लगे I तब उसने  थ्रीविलर स्टार्ट किया और  वे आगे की  तरफ चलने लगा I अब मुझे ऐसा लगा जैसे कोई मेरी सोच में खीचीं लक्ष्मण रेखा के उस पार पहुँच गया हो, और  उसका थ्री- व्हीलर तेज़ी पकड़ने लगा I

हार्दिक वधाई मोहन जी!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 4, 2015 at 7:46pm

आदरणीय मोहन बेगोवाल सर बहुत ही शानदार कथानक पर बेहतरीन लघुकथा बुनी है आपने. इस प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई. पंचलाइन और शीर्षक के लिए विशेष बधाई निवेदित है सादर 

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