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मखमली चाँदनी रोज आया करो---(ग़ज़ल)--- मिथिलेश वामनकर

212---212---212---212

 

मखमली चाँदनी रोज आया करो

पर सितारों से आमद छुपाया करो

 

तितलियों ने लिए है नए पैरहन

ऐ हवा ढंग से गुदगुदाया करो

 

सेलफोनो से आती हुई ये सदा

हर शज़र को बुला कर सुनाया करो

 

राधिका-सी जमीं रक्स करने लगे 

बादलो बांसुरी तो बजाया करो

 

औज की धडकनें थम न जाएँ कहीं

यक-बयक नौ कँवल मत खिलाया करो

 

इन गुलाबों पे फिर से जवानी चढ़े

इस तरह बाग़ में फाग गाया करो

 

एक दीवान से किस कदर दब गई

रैक को इस तरह मत सताया करो

 

बारिशों में धुली पत्तियां कह रहीं

गुनगुनी धूप को भी बुलाया करो

 

कब चले, कब रुके, ये हमें सिग्नलो

फलसफा जिंदगी का सिखाया करो

 

लॉन के छोर पर बैठ कर रो रही

ओंस को धूप से मत भिड़ाया करो

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 25, 2015 at 4:01am

आदरणीय सतविंदर जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद. 

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on November 18, 2015 at 9:43am
बहुत सुंदर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 17, 2015 at 4:23pm

आदरणीय रवि जी, ग़ज़ल पर आपका अनुमोदन पाकर आश्वस्त हुआ हूँ. सराहना तथा उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. 

Comment by Ravi Shukla on November 17, 2015 at 3:46pm

आदरणीय मिथलेश जी, शानदार व खुबसूरत ग़ज़ल कही  है आपने हम देर से इस ग़ज़ल तक आये पर आये एक शेर जो हर किसी की जुबान पर है हमें भी पंसद आया

तितलियों ने लिए है नए पैरहन

ऐ हवा ढंग से गुदगुदाया करो   बहुत खूब वाह

बारिशों में धुली पत्तियां कह रहीं

गुनगुनी धूप को भी बुलाया करो  बारिश में नहाई हुई पत्तिया गुनगनी धूप  क्‍या शानदार चित्र है और इसी भाव  का आखिरी  शेर।

लॉन के छोर पर बैठ कर रो रही

ओंस को धूप से मत भिड़ाया करो    लॉन के छाेर पर  दृष्टि , ओस और धूप का परस्‍पर विरोधी स्‍वभाव बहुत खूब चित्रण किया है

पूरी ग़ज़ल के लिये दिली दाद स्‍वीकार करें । सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 17, 2015 at 3:14pm

आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 17, 2015 at 3:04pm

तितलियों ने लिए है नए पैरहन

ऐ हवा ढंग से गुदगुदाया करो

इन गुलाबों पे फिर से जवानी चढ़े

इस तरह बाग़ में फाग गाया करो---------------सुबहानअल्लाह , कमाल के शेर हैं . वाह .

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 16, 2015 at 11:45am

आदरणीया राजेश दीदी, आपका स्नेह मुझे सदैव प्रेरित करता है. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर नमन 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 16, 2015 at 11:43am

आदरणीय सौरभ सर, ग़ज़ल पर आपका अनुमोदन पाकर आश्वस्त हुआ हूँ. सराहना, मार्गदर्शन तथा उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. आपके मार्गदर्शन अनुसार त्रुटी सुधारता हूँ. सादर नमन 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 15, 2015 at 11:37pm

बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही मिथिलेश भैया शेर दर शेर दाद कुबूलिये |

तितलियों ने लिए है नए पैरहन

ऐ हवा ढंग से गुदगुदाया करो ...वाह वाह 

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 15, 2015 at 11:32pm

वाह ! बवाल कर रही है आपकी ये प्रस्तुति ! बहुत खूब ! 

हृदयतल से बधाई स्वीकार करें 

सम्बोधन की संज्ञाओं में अनुस्वार न लगाया करें.  बादलो बाँसुरी सुनाया करो उचित होगा.  इसी तरह सिग्नलों  न हो कर सिग्नलो होगा.  लेकिन एक जगह अनुस्वार छूट भी गया है. जैसे, पत्तियां कह रही ! यहाँ रहीं होगा न ? ये सब तो व्याकरण सम्मत बातें हुईं. बाकी, ग़ज़ल ? सुबहान अल्लाह ! 

:-))

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