तीन दिन के नागे के बाद वो आज आई थी Iमन में आया खींच के डांट लगाऊं पर साथ में चार साल के मुन्नू को देख चुप रह गई I
"बड़ी नई साड़ी पहन कर आई है आज तो ,और ये मुन्नू ने भी नए कपड़े पहन रखे हैं "?
"मैडम जी वो दो दिन मंदिर में रत जगा था ना "I
"पहले ये परांठा सब्जी खिला दे मुन्नू को फिर काम करना "I
"ये नहीं खायेगा मैडम जी ,सुबह से ही प्रसाद मिठाई फल खूब खा रहा है "मुन्नू ने भी आँखों से नानी की बात का अनुमोदन कर दिया I
"कहाँ से आ गया इतना प्रसाद ?"
"वो सत्ती के तन में माता आने लगी है ना "I
''क्या.. ?" समझ में तो आ रहा था कुछ कुछ I
"रत जगे में जब ढोलक मंजीरे के साथ भजन होते हैं ना ,बस तभी अचानक आ जाती है माता Iकुछ सुध नहीं रहती फिर उसे I बाल खोल कर सर हिला हिला कर खूब नाचती है चिल्लाती है Iसब प्रसाद पैसे वगेहरा चढाते हैं I"
वो मुझे माता आने की प्रक्रिया समझा रही थी और मेरी आँखों के आगे तीन महीने पहले का दृश्य घूम रहा था ,जब मैंने इसकी बेटी सत्ती को देखा थाI पति ने मार पीट कर घर से निकाल दिया था ,शरीर पर चोटें थीं और हाव भाव से मानसिक रूप से भी बीमार लग रही थी I मैंने आधे घंटे की समझाइश और अपनी मनोचिकित्सक मित्र का पता थमा दिया था इसके हाथ में I और फिर बात आई गई हो गई थी I
"चलूँ मैडम जी ,घर में भी आने जाने वालों की भीड़ लगी रहती है "I उसकी आवाज़ ने ध्यान तोडा I
"हाँ ठीक है " कुछ और बोलने को खुले होंठ रुक गए I सामने आईने से झांकती दो आँखें पूछ रही थीं कि क्या बस कागज़ थमा देना और समझा देना ही काफी था ?
मौलिक व् अप्रकाशित
Comment
बहुत ही अच्छी लघु कथा कही है। हार्दिक बधाई, आदरणीया प्रतिभा जी।
आदरणीया प्रतिभा जी, आपने सामजिक विद्रूपताओं के पनपने और फैलने की वास्तविकता को क्या खूब पकड़ा है. लाजवाब. बधाई
सामने आईने से झांकती दो आँखें पूछ रही थीं कि क्या बस कागज़ थमा देना और समझा देना ही काफी था ?वाह ... समाज में फ़ैली कुरीति को समेटे बहुतही सुंदर संदेशात्मक प्रश्न छोड़ती इस लघुकथा की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीया प्रतिभा जी।
आपसे कथा के मर्म पर अनुमोदन मिलना मेरे लिए हर्ष का विषय है ,आपका हार्दिक आभार आदरणीय तेजवीर जी
सही कहा आपने ,सही समय पर लिए छोटे छोटे जागरूक क़दमों की ही जरूरत है आज , हार्दिक आभार आपका ,रचना पर आकर उत्साहवर्धन करने के लिए आदरणीय उस्मानी जी
रचना पर आकर उत्साहवर्धन करने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीया ज्योत्स्ना जी
कथा के मर्म का अनुमोदन व् उत्साहवर्धन करने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय नादिर खान जी
हार्दिक बधाई आदरणीय प्रतिभा जी!आज इक्कीसवीं सदी में भी समाज में इतना अंध विश्वास और दकियानूसी रीति रिवाज़ प्रचलित हैं!मजे की बात तो ये है कि लोग मानसिक रोगियों की चिकित्सा कराने के वजाय उनके द्वारा कमाई का ज़रिया बना लेते हैं!बेहतरीन और संदेश प्रद लघुकथा!पुनः बधाई!
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