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बेसदा बस्ती की रस्मों को निभाना था हमें
इसलिए अपनी जबानों को कटाना था हमें /1
या तो कातिल उस नगर में या बचे सब गैर थे
बोझ अर्थी का स्वयं की खुद उठाना था हमें /2
आग का दरिया मुहब्बत ताप आए हम भी यूँ
जो दिलों में जम गया वो हिम गलाना था हमें /3
भर गए सुनते थे वो ही चल दिए जो रीत कर
प्रीत घट में से भला फिर क्या बचाना था हमें /4
रास्ता यूँ तो सफर का जानते थे दूर तक
तात थे इससे ही उनको कुछ बताना था हमें /5
कौन रखता माँ के जैसा ध्यान अपना बोलिए
फिर किसी दुनिया में जाते लौट आना था हमें /6
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
आ० भाई मिथिलेश जी , उत्साहवर्धन और कमियों की ओर ध्यान दिलाने के लिए हार्दिक आभार . इंगित पंक्ति को इस प्रकार पढ़ें -
बोझ अर्थी का स्वयं ही तो उठाना था हमें
आ० भाई मोहन जी , उपस्थिति के लिए हार्दिक धन्यवाद .
आ० भाई गोपाल नारायण जी , ग़ज़ल को स्नेह देने के लिए आभार . उपस्तिति बनाये रखें .
आ० भाई गिरिराज जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई लेखन सफल हुआ .हार्दिक धन्यवाद .
आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी, बेहतरीन ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद हाज़िर है.
इस मिसरे को देख लीजियेगा
//बोझ अर्थी का स्वयं की खुद उठाना था हमें //
आदरनीय लक्ष्मण भाई ,बहुत उम्दा ग़ज़ल के लिए बहुत बधाई कबूल करें
बेसदा बस्ती की रस्मों को निभाना था हमें
इसलिए अपनी जबानों को कटाना था हमें /------------------कमाल है धामी जी , बहुत बढ़िया गजल .
आदरनीय लक्ष्मण भाई , ये गज़ल भी बहुत खूबसूरत हुई है , आपको हार्दिक बधाइयाँ । मतले के लिये अलग से बधाई ।
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