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2122 2122 2122 212
खुद के होने का जरा भी वो पता देता नहीं
अब किसी को भी गुनाहों की सजा देता नहीं /1
देवता तो थे बहुत पर ढल गए बुत में सभी
क्यों कहूँ तुझसे की उनको क्यों सदा देता नहीं /2
मर रही इंसानियत है और रिश्ते तार तार
क्यों कयामत का भरोसा अब खुदा देता नहीं /3
हर तरफ विष देखता हूँ सुर असुर सब हैं लिए
क्या समंदर मथ भी लें तो अब सुधा देता नहीं /4
वक्त का साया रहे जब मत निठल्ले बैठना
वक्त भी मौका सभी को हर दफा देता नहीं /5
साधु हो या फिर भिखारी आस कुछ तो रखता है
बेसबब कोई किसी को भी दुआ देता नहीं /6
पाँव भी कहने लगे इस राह से उकता के यूँ
पथ ‘मुसाफिर‘ क्यों भला तू अब नया देता नहीं /7
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
आ० भाई सौरभ जी अभिनन्दन . मुझे तनाफ़ुर का दोष के विषय में ध्यान नहीं था इसका ज्यान कराकर मार्गदर्शन करने हेतु धन्यवाद . क्या इस मिसरे को इस प्रकार लिखने से यह दोष दूर हो जायेगा -
देवता यू तो बहुत पर ढल गए बुत में सभी
मार्गदर्शन कीजियेगा आभार सहित
आ० भाई मिथिलेश जी स्नेह के लिए आभार l
प्रस्तुति केलिए धन्यवाद आदरणीय लक्ष्मण धामीजी.
वैसे, कुछ अश’आर में जिस तरह से मात्रा पतन हुआ है उससे शेर का मिसरा असंयत होगया है.
देवता तो थे बहुत पर ढल गए बुत में सभी .. इस मिसरे में अनुप्रास का बढिया प्रयोग अवश्य हुआ है लेकिन्ब अरुज़ की नज़र से मिसरे में तनाफ़ुर का दोष अवश्य है. वाक्य उच्चारण में असहजता महसूस हो रही है.
हार्दिक धन्यवाद व शुभकामनाएँ
आदरणीय लक्ष्मण सर जी, बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं
आ० भाई समर जी , इस उत्सावर्धक प्रतिक्रिया व स्नेह के लिए हार्दिक धन्यवाद l
आ० भाई गोपालनारायण जी , ग़ज़ल पर उपस्थिति से मन बढ़ने के लिए हार्दिक आभार .
साधु हो या फिर भिखारी आस कुछ तो रखता है
बेसबब कोई किसी को भी दुआ देता नहीं /6
पाँव भी कहने लगे इस राह से उकता के यूँ
पथ ‘मुसाफिर‘ क्यों भला तू अब नया देता नहीं /7----बहुत बढ़िया धामी जी.
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